________________
प्रवेश ******京*********************************
यदि कोई महानुभाव तर्क करें कि जिस प्रकार चारित्र निर्वाह और आत्म कल्याण में वस्त्र, पात्र और धर्मोपकरण की आवश्यकता है उसी प्रकार निवृत्ति मार्ग वाले को आत्म-कल्याण में “मूर्ति" भी सर्वप्रथम आवश्यक है। इसका निषेध क्यों किया जाता है?
इसका समाधान है कि मूर्ति पूजा की आत्म-कल्याण में कोई आवश्यकता नहीं है। शास्त्रों में उपकरणों का जो विधान किया गया है वह आवश्यक और अनिवार्य होने से ही उपादेय है तथा इन उपकरणों की गणना भी की गई है। किन्तु ऐसे धार्मिक उपकरणों में सर्वज्ञ महर्षियों ने मूर्ति का तो नाम भी निर्देश नहीं किया। इन उपकरणों को उचित साधन समझकर ही ग्रहण करते हैं। इनमें ममत्व बुद्धि नहीं रहती, किन्तु मूर्ति तो साध्य की तरह मानी जाती है और इसके द्वारा आसक्ति अधिक बढ़ती है। उपकरणों को कम करने तथा समय पर त्यागने की भावना रहती है, परन्तु मूर्ति को तो अपनाये रखने की ही बुद्धि रहती है * उपकरणों के उपयोग में हिंसा नहीं होती, परन्तु मूर्ति की पूजा में त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा
* उपकरणों से मूर्ति की साम्यता हो नहीं सकती क्योंकि शास्त्रों में - १. रजोहरण मुखवस्त्रिका को जैन लिंग में मानकर अत्यंत उपयोगी बताया है। यहां तक कि जिन कल्पी और केवली तक के यह लिङ्ग रहता है। “स्वलिङ्गसिद्ध” का स्वरूप जानने वाले इस विषय में शङ्का ही नहीं कर सकते, किन्तु मूर्ति रूप उपकरण के लिए तो आगम एक दम मौन है।
२. रजोहरण मुखवस्त्रिका के सिवाय वस्त्र पात्र आदि उपधि के लिए त्याग की भावना होकर समय पर त्याग भी किया जाता है। जिसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्याय में उपधि त्याग का फल भी बताया गया है। यद्यपि मूर्ति कोई उपकरण नहीं है, तथापि उपकरणों के साथ समानता करने पर तो मूर्ति भी उपकरण की तरह त्यागने योग्य (उपकरण) मानी जानी चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org