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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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“आचार्य महाराज ने दुष्ट रक्त दोष लागु पडयो, ते बखते ईर्ष्यालु लोको कहेवा लाग्या के - उत्सूत्र ना कथन थी कुपित थयेला शासन देवोए ए वृत्तिकार ने कोढ उत्पन्न कर्यो छे।"
(प्रभावक चरित्र-अभयदेव प्रबन्ध पृ० २६०) कहिये सुन्दरजी! अब तो आपकी कल्पना कोरी कपोल कल्पित ही ठहरी न? और साथ ही मिथ्या भी सिद्ध हुई न? और देखिये स्वयं श्री अभयदेवसूरि ठाणांग सूत्र की वृत्ति पूर्ण करते हुए लिखते हैं कि - "सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्यवियोगतः। सर्वस्व पर शास्त्राणा मदृष्टे रम्मृतेश्चमे॥ १॥ वाचनानामनेकत्वात पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मत भेदाच्चकुत्रचित्॥ २॥ क्षूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः। सिद्धान्तानुगतोयोऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः॥३||
(आगमोदय समिति पत्र ५२७) आँखें मूंदकर लिखा हुआ सभी सत्य मानने वाले सुन्दर मित्र को अपने टीकाकार के उक्त उद्गारों को ध्यान से पढ़ना चाहिये, वे स्वयं लिखते हैं कि “स्खलना हो जाना संभव है, इसलिये सिद्धान्तानुकूल अर्थ को ही ग्रहण करना चाहिये।" ऐसी सूरत में श्री सुन्दर मित्र टीकाओं को अक्षरशः मानने का हठ करें यह केवल अन्ध श्रद्धा ही नहीं तो क्या है?
सुन्दरजी! आपके मूर्ति पूजक विद्वान् ही टीका भाष्यादि के हवाले को प्रमाणरूप नहीं मानते हैं, जरा आंखें खोलकर निम्न उदाहरण देखिये -
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