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२६६ क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? **********************************************
"प्रकरण ग्रन्थों नी अपेक्षा वृत्ति तेथी चूर्णि अने ते थी भाष्य एमज नियुक्ति, अंतमा सूत्रने सौथीं बलवान प्रमाण माने छे.....अहियां जोवू जोइये के सूत्रोक्त रीति नो आदर करवा माटे बहु आचार्यों ना वचनो तरफ काइंक ख्याल करवामां आवतो नथी।"
(राजेन्द्र सूर्योदय पृ० १८ प्र० त्रणथूइ समस्त संघ) पुनः उक्त पुस्तक के ५२ वें पृष्ठ पर लिखा है कि -
“पन्यासजी रूप विजयजी नु कहेवू छे के सूत्र नी अपेक्षाए टीका चूर्णि नो मत हमने मान्य नथी।"
सुन्दर मित्र! अब एक दो प्रमाण आपकी समाज के बृहद् साधु सम्मेलन में आचार्यों के बीच शास्त्रार्थ हुआ उसके भी लीजिये।
(यह शास्त्रार्थ दीक्षा विषयक था) - “आवखते सागरानन्दसूरिजी ए धर्म-बिन्दु नुं भाषांतर विजयवल्लभ सूरि ने आप्युं, आग्रन्थना मूल पाठमां बड़ी दीक्षा शब्द नहीं होवा छतां भाषांतर मां दृष्टिगोचर थयो अने ते थी श्री विजयवल्लभ सूरिजी ए जणाव्यु के क्यों चक्कर में डाल रहे हो? मूल सूत्र लाइए" पछी मूल सूत्र मंगाव्युं तो एमां क्यांय बड़ी दीक्षा नो पाठ जणायो नहीं।" (राजनगर साधु सम्मेलन पृ० १४६)
सुन्दर मित्र! भाषांतर जो कि अनुवाद मात्र है उसमें भी ऐसे घोटाले हो जाते हैं, और उन्हें भी आपके आचार्य नहीं मानकर मूल ही का प्रमाण स्वीकार करते हैं तब टीकाओं की तो बात ही क्या है? और देखिये -
___ इसी सम्मेलन में बाल दीक्षा के समर्थन में श्री सागरानन्द सूरिजी ने धर्म बिन्दु के भाषांतर का प्रमाण दिया इस पर से आचार्य सम्राट् श्री विजयनेमिसूरिजी ने कहा कि -
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