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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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"भाषांतर उपर थी निर्णय न थाय, मूल पाठ काढ़ो।"
(राजनगर साधु सम्मेलन पृ० १४६) - सुन्दर मित्र! आपकी समाज के ये आचार्य सम्राट मूल के भाषानुवाद को ही जब प्रमाण रूप से स्वीकार नहीं करते तब आप हमारे सामने मूल की व्याख्या कही जाने वाली टीका वह भी बिना किसी मूल के (जो कि मूल रहित होने से टीकाकार का स्वतन्त्र मत है) प्रमाण मानने का हठ क्यों करते हैं?
सुन्दर बन्धु! टीकाकार जब किसी वस्तु की व्याख्या करते हैं तब कितने ही स्थानों पर मूल के आशय को भूलकर (सेंकड़ों वर्ष पूर्व की परिस्थिति की उपेक्षा कर) अपने समय और आसपास के वातावरण को ध्यान में रखकर भी कभी २ सैंकड़ों वर्ष पूर्व के आशय की व्याख्या करने लग जाते हैं। इसके सिवाय व्याख्या में व्याख्याकार का स्वतन्त्र मंतव्य भी रहता है, बस इसी का यह परिणाम है कि टीकाओं में अनेक स्थानों पर स्खलनाx हुई है, श्री अभयदेवाचार्य (व्याख्याकार) महाराज भी तो चौरासी चैत्यों के मालिक श्री वर्धमान सूरि के प्रशिष्य थे, और उनका समय भी मूर्तिवाद की युवावस्था का था। तब ऐसे समय में व्याख्याकार महाराज ने अपनी परिस्थिति के अनुकूल व्याख्या करदी हो, इसमें सन्देह ही क्या है? सुन्दर मित्र जरा पक्षपात को दूर हटाकर सोचो, दूसरे विद्वानों के कथन पर विचार करो, बिलकुल अहं सर्वस्व मत बनो। देखो आप ही की समाज के प्रतिष्ठत विद्वान् पं० बेचरदासजी आपकी इन टीकाओं के विषय में क्या उद्गार निकालते हैं।
x देखो - लोकाशाह मत समर्थन।
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