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________________ ३० **** मिथ्या प्रशंसा (७) मिथ्या प्रशंसा श्री० सुन्दरजी पुस्तक के प्रथम प्रकरण के अन्त में पृ० ११६ में मूर्त्ति पूजा की मिथ्या महिमा गाते हैं कि - " मूर्ति पूजकों ने संसार का जितना उपकार किया है उतना ही मूर्ति विरोधकों ने संसार का अपकार किया है । " ७ वाह ! क्या कहना ! अपने आप मियाँ मिट्ठ बनना इसे ही तो कहते हैं । वास्तव में जिस प्रकार बिना लगाम का घोड़ा उन्मार्ग गमन करता है, ठीक उसी प्रकार बिना विचारे प्रमाण शून्य बोलने और लिखने वाले भी उन्मार्ग- मिथ्या मार्ग पकड़ लेते हैं । सुन्दर मित्र ! सच पूछा जाय तो जितना पतन मूर्ति-पूजा के द्वारा मूर्ति पूजकों ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य कारण से किसी ने किया हो ? Jain Education International १. जितना धन आज तक मन्दिर मूर्त्ति निर्माण करने में, मूर्तियों के बहुमूल्य आभूषण बनवाने में, मन्दिर मूर्त्ति के लिये झगड़े लड़ने में, संघ निकालकर यात्रा करने में और पहाड़ों के कर भरने में व्यर्थ खर्च हुआ है, उतना शायद ही किसी अन्य कार्यों में खर्च हुआ हो । यदि यही धन बचा रहता तो उससे सारा भारतवर्ष शिक्षित हो सकता, बेकारी का नाम भी नहीं रह सकता और इस धन के बहुत से हिस्से को महमूद गजनवी जैसे आक्रमणकारी लूट खसोटकर भारत को निर्बल बनाकर स्वयं सबल न हो सकते। अतएव भारत की आर्थिक स्थिति के गिरने में मूर्त्ति पूजा और इसके प्रवर्त्तक तथा भक्त भी प्रधान कारण हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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