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________________ २६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा. ******************本*** ******************** __सुन्दर मित्र यदि आप हमसे अधिक नहीं करते हैं तो बतलाइये, यह मूर्ति बनवाना, मन्दिर चुनवाना, प्रतिष्ठा करवाना, संघ निकालकर यात्रा करना आदि क्रियायें आप क्यों करते, करवाते हैं? क्या ये क्रियायें हमसे आप अधिक नहीं करते हैं? यदि आपकी दृष्टि में हमारी भाव रूप भक्ति और आपकी स्थापना भक्ति एक ही है तो फिर यही करिये, जिससे किसी प्रकार का झगड़ा भी नहीं रहे, न व्यर्थ का धर्म के नाम पर पाप हो, न जैन समाज की शक्ति ईंट चूना और पत्थरों में बरबाद हो! न श्रद्धा दूषित रहे और सभी जैन समाज प्रभु आज्ञा पालक बनें। सुन्दर मित्र ने भोलों को चक्कर में डालने के लिये अमावस्या और पूर्णिमा की तरह जड़ भक्ति और शुद्ध चैतन्य भक्ति को एक समान बता दिया, किन्तु जनता जानती है कि इसमे कितना अन्तर है ? जबकि मूर्तियों और मन्दिरों के कारण जैन समाज में भारी कलह मचा हुआ है। दिगम्बर श्वेताम्बरों के लाखों रुपये इनके हक और अधिकार के लिए स्वाहा हो चुके और हो रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्ति पूजक लोग साधुमार्गी समाज पर इसी के कारण हमले करके प्रभु पथ को ठेस पहुँचाते रहते हैं। इन्हीं मन्दिरों और मूर्तियों के कारण विलासिता विकारी भाव और चोरी जैसे निंद्य कार्य बढ़ते हैं। ऐसी हानिकर पद्धति को किसी भी प्रकार की हानि से सर्वथा रहित आत्मबल प्रदाता कहना और भाव द्वारा भक्ति से समानता बतलाना कितना अन्धेर है? क्या यह सरासर दिन दहाड़े जनता की आँखों में धूल झोंकना नहीं हैं? स्पष्ट है कि भाव द्वारा भक्ति करने को मूर्तिपूजा के समान बतलाना सरासर झूठ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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