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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१२५ ******************************************* जाने कितने ही गुल खिलेंगे। फिर भी उववाई सूत्र का यह पाठ मूर्ति पूजा को तो स्थान देता ही नहीं है, क्योंकि अम्बड श्रमणोपासक ने इस पाठ में यही प्रतिज्ञा की है कि - "मुझे अन्ययूथिक, अन्ययूथिक देव,
और अन्ययूथिक परिग्रहीत चैत्य को वन्दना नमस्कारादि करना नहीं कल्पता है, किन्तु अरिहंत और अरिहंत चैत्य को वन्दनादि करना कल्पता है" इसमें अकल्पनीय निषेध प्रतिज्ञा में १ अन्य यूथिक २ अन्ययूथिक देव ३ अन्ययूथिक परिग्रहीत चैत्य को वन्दनादि करना छोड़ा है सो आनन्द श्रावक के समाधान की तरह सर्वथा उचित है,
और इस चैत्य का अर्थ साधु ही प्रकरण सङ्गत है। (देखो आनन्द प्रकरण) और कल्पनीय (आदरणीय) प्रतिज्ञा में केवल दो पद वंदनीय रक्खें:- १ अरिहंत २ अरिहंत चैत्य, यहाँ अरिहंत चैत्य का अर्थ साधु ही उपयुक्त है, क्योंकि यदि यहाँ मूर्ति अर्थ किया जाय तो सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि-क्या अम्बड़ के लिए अरिहंत के सिवाय गौतमादि गणधर पूर्वधर और लब्धिधर आदि साधु साध्वी वन्दनीय पूजनीय नहीं थे? अवश्य थे, क्योंकि प्रभु ने अम्बड़ को श्रमणोपासक कहा है, जो श्रमणोपासक होकर श्रमणवर्ग की सेवा भक्ति नहीं करे वह श्रमणोपासक ही कैसा? यदि पक्षपात वश आप “अरिहंत चैत्य" का अर्थ मूर्ति करो तो बस अम्बड़ के लिए केवल अरिहन्त और उनकी पाषाणमय प्रतिमा ही वन्दनीय रही, गणधर और साधु साध्वी नहीं और इस प्रकार वह श्रमणोपासक ही नहीं रहा। अतएव कुतर्क और अनर्थ करना छोड़ दीजिये, और अम्बड़ को पाषाण मूर्ति के बजाय प्रभु के जीते जागते चैत्य (स्मारक) साधु भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करने वाला मानकर उसे मूर्ति उपासक की अपेक्षा शास्त्रानुसार श्रमणोपासक ही रहने दीजिये।
यहाँ हम प्रकरणोचित एक दो प्रश्न कर लेना भी उचित समझते हैं
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