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१२६ तुंगिका के श्रमणोपासक ******************************************
(१) सुन्दर मित्र ने पृ० ७६ में अरिहंत शरण शब्द में ही अरिहन्त मूर्ति मानली, और आगे चलकर एक स्थल पर तीर्थंकर गोत्र के २० बोलों में प्रथम बोल अरिहन्त पद आराधन में ही उनकी मूर्ति को भी सम्मिलित कर लिया, तब हम इन्हें कहते हैं कि - भगवन्! यहाँ भी यही चाल चलिये न। जिससे अरिहन्त पद में ही आप अपने सन्तोष के लिये उनकी मूर्ति भी मानलो, इससे दूसरा अर्हन् चैत्य पद साधुओं के लिए स्वतन्त्र रह जाय, इस तरह आपका भी हिसाब ठीक बैठ जाय, याने अम्बड़ जिनोपासक के साथ मूर्ति उपासक भी हो सके, और श्रमणोपासक भी। इससे उनकी श्रमणोपासकता तो नहीं मारी जाय, कहो उतरी गले?
(२) क्यों भगवन्! खाली “चैत्य' शब्द हो उसका अर्थ भी जिनमूर्ति और “अरिहन्त चैत्य” हो उसका भी अर्थ जिनमूर्ति, यह गड़बड़ाध्याय कैसा? कुछ स्पष्ट तो होना चाहिए? यदि अरिहन्त चैत्य से ही जिनमूर्ति अर्थ होता हो तो बिना अरिहन्त के जहाँ सिर्फ “चैत्य" शब्द ही हो वहाँ तो यह अडंगा नहीं लगाना चाहिए? कहिये है मन्जूर।
महानुभाव! जब तक हार्दिक सरलता नहीं लाओगे तब तक आत्मकल्याण कदापि नहीं होने का। याद रखिये आपका यह “मरुधर केसरी' पन कहीं संसार में रुलाने वाला नहीं बन जाय।
(१८) तुंगिका के श्रमणोपासक
श्रीमद् भगवती सूत्र श० २ उ० ५ में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन है। जिसका संक्षिप्त सार यह है कि एक बार तुंगिया नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य स्थविर भगवान् ५००
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