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२२४ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध
****************************************** नाम मात्र को भी नहीं है। न लेख में मूर्ति का उल्लेख ही है, फिर श्री दर्शन विजयजी की यह धोखेबाजी सिवाय पक्षपात के और किस कारण से हो सकती है? निःसन्देह यह चालबाजी जन साधारण को भ्रम में डालने के लिए ही की गई है।
जबकि मूर्ति पूजक समाज के लेखक इस पाषाण खण्ड को मूर्ति नहीं कहकर पाषाण खण्ड ही मानते हैं, तथा सन्देह प्रकट करते हुए लिखते हैं कि -
“सम्भव छे के हांसपुर के जे प्राचीन काल मां हर्षपुर नामर्नु मोटुं नगर हतुं अने ज्यांथी हर्षपुर गच्छ नो प्रादुर्भाव थयो छे, ते स्थानना जिनालय मां नो शिलालेख होय?" (जैन सत्यप्रकाश वर्ष ४ अङ्क १-२ पर्युषण पर्व विशेषांक पृ० १८)
इस प्रकार जब इन्हीं के श्री ज्ञानविजयजी महाराज ही सन्देह करते हैं, तब हमारा अनुमान सत्य होने में क्या कसर है? हम यह भी कहते हैं कि शङ्काकार ने इस शिलालेख को जिनालय का ही होने की शङ्का क्यों की? किसी भी मकान का यह लेख हो सकता है, किन्तु इस पर से तो यह स्पष्ट हो गया कि - श्री दर्शन विजयजी की यह करतूत एकदम अधम कोटि की है।
(५) इन्हीं महात्मा ने जैन सत्य प्रकाश वर्ष २ अङ्क ४-५ (महावीर निर्वाण अंक) मथुरा के कंकाली टीले की तीन प्रतिमाओं का परिचय कराते हुए उन्हें भगवान् महावीर की आमलकी क्रीड़ा में देव द्वारा परीक्षा होने की हकीकत बताने वाली प्रतिमायें होना बताया है। किन्तु इन्हीं के मतानुयायी श्री साराभाई मणीलाल नवाब ने इसी जैन सत्य प्रकाश वर्ष ४ अंक १-२ (पर्युषण पर्व विशेषांक) के "प्राचीन जैन स्थापत्यो' शीर्षक लेख में इनके इस कथन को युक्ति
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