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प्रवेश
वर्द्धक सामग्री तथा रसीले गान, तान नृत्यादि क्रियाओं के प्रभाव से और स्त्री पुरुषों, युवक, युवतियों के सम्पर्क से विकार वर्धक भावनाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अभी थोड़े दिनों की खबर है कि पालीताने में....विजय नामक साधु.....नामक कच्छी विधवा को लेकर पलायन कर गया। ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं घट चुकी,
और घटती जा रही है। यह सब प्रभाव पुद्गलासक्ति का है जो कि मन्दिरों और मूर्तियों का सहारा पाकर फैल चुकी है। अतएव मूर्तिपूजा आत्मकल्याण में अनावश्यक एवं अहितकर सिद्ध होती है। पुद्गलों के फन्दे में फँसाने वाली ठहरती है। आत्म कल्याण के इच्छुक को इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है।
जब पुद्गल त्याग ही धर्म है। पुद्गलों की आवश्यकताओं को घटाना ही कल्याण की ओर अग्रसर होना है। तो फिर मन्दिर मूर्ति के द्वारा पुद्गलों की विशेष वृद्धि कर उसमें आसक्ति की प्रचूरता को धर्म कैसे कहा जाय?
जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है। इसमें व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुण पूजा को अधिक महत्त्व दिया गया है। गुणों के अस्तित्व से गुणी की पूजा होती है। निर्गुणी या दुर्गुणी तथा द्रव्य लिंगी को वन्दन करने का विधान जैन धर्म का नहीं है। जो भी व्यक्ति पूजा बाह्य दृष्टि से दिखाई देती है, उसके लिए समझदारों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह व्यक्ति पूजा नहीं, किन्तु व्यक्ति के भीतर विद्यमान महान् व्यक्तित्व-अर्थात् गुणों-की ही पूजा है। क्योंकि जब तक पूजा पाने वाले व्यक्ति में उत्तम गुणों का होना पाया जाता है तब तक ही वह पूजनीय होता है। किन्तु जब उपासक को यह मालूम हो जाय कि जिसे हम अपना आदर्श-गुरु मान कर वन्दना नमस्कारादि करते हैं,
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