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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
६७ ****本*****************子********字中李*******卒* अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, यावत् सर्वप्राण, भूत, जीव सत्त्व तक की आशातना मानी है, इन तेंतीस बोलों से एकेन्द्रिय प्राण भूतादि की भी आशातना मानी, किन्तु इसमें भी मूर्ति की तो कोई भी आशातना नहीं बतलाई, फिर सुन्दर मित्र का कथन मिथ्या होने में क्या कसर है? __सुन्दर मित्र! संसारी जीवों के शरण भूत जिन चार पदों का निर्देश किया गया है उसमें सारी जैन समाज एक मत है, क्या उसमें भी आपकी मूर्ति को स्थान है? नहीं, कदापि नहीं देखिये।
चत्तारिसरणंपवज्जामि-अरिहंतासरणंपवज्जामि, सिद्धा सरणं पवज्जामि, साहु सरणं पवज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि।
इस सर्व मान्य और संसार रत जीवों के शरणभूत सिद्धान्त में भी मूर्ति को स्थान नहीं है। अतएव सुन्दरजी का प्रयत्न विफल ही है।
सुन्दरजी ने छद्मस्थ अरिहंत को साधु पद में बताकर भवितात्मा अनगार में उनका समावेश होना लिखा और अरिहंत चैत्य को मूर्ति के लिए सुरक्षित रख लिया, यह व्यर्थ की खींचतान है। इन्हें समझ लेना चाहिए कि छद्मस्थ अरिहंत को अरिहंत चैत्य शब्द से पृथक् बतलाने का खास कारण यह है कि चमरेन्द्र इन्हीं छद्मस्थ अरिहंत का शरण लेकर सौधर्म स्वर्ग गया था और आया भी इन्हीं की शरण में। यहाँ छद्मस्थ अरिहंत प्रभु महावीर ही मुख्य एवं आश्रयभूत पुरुष हैं, अतएव इनसे विशेष सम्बन्ध होने के कारण यह पद अधिक लगाया गया है, किन्तु सूत्र रहस्य से अनभिज्ञ सुन्दरजी को यह बात मालूम कैसे हो?
श्री सुन्दरजी! जिस प्रकार वैयावृत्याधिकार में सूत्रकार ने आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रुग्ण, बाल आदि को मात्र साधु पद में ही
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