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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा. २७१ *******************************学学李*** ही स्थान दिया गया है, ऐसी सूरत में त्रस स्थावर जीवों का जिसमें प्रचुरता से धमामान हो, जो संवर का विरोध कर आश्रव को अपनाने वाली हो, जिसमें आत्म-कल्याण का कुछ भी अंश नहीं हो, ऐसी व्यर्थ और निरुपयोगी क्रिया का प्रचुर विधान करने वाले ग्रन्थ किस प्रकार आगम के अंश या आगम सम्मत कहे जा सकते हैं? कदापि नहीं। दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार का जिस प्रकार समन्वय नहीं हो सकता, उसी प्रकार आगमों से ऐसे ग्रन्थों का समन्वय नहीं हो सकता। इन बनावटी ग्रन्थों में कितनी ही अनर्थकर और धर्म विपरीत बातें लिखी हैं, यहाँ हम मूर्ति पूजा विषयक (सम्बन्ध होने से) आगम विरोधी ग्रन्थों के कुछ अवतरण देते हैं।
__ श्री सागरानंद सूरिजी ने अपने सिद्धचक्र पाक्षिक में तीर्थ यात्रा, संघ यात्रा नामक एक लेख माला प्रकाशित की है, जिसमें वे देवेन्द्रसूरि के ग्रन्थ का प्रमाण देकर निम्न प्रकार से लिखते हैं -
“शास्त्रकार एटला सुधी कहे छे के धूपो एटली बधी गंध वाला होय के जाणे गंध नीज वाट होय नहिं तेवा लागे अर्थात् आवा सुगंधवाला धूपोनुं जो दहन थतुं होय ते गन्ध मात्र भगवाननी आगलज नहिं, एकला गभारामां नहिं, परन्तु आखा मंदिर नी अन्दर जे धूपना दहन थी थयेली सुगन्ध होय ते व्याप्त होवी जोइए केटलेक स्थाने तो धूपना दहन नी शास्त्रकारो एटलो बधी तीव्रता जणावे छे के श्री जिनेश्वर भगवानना मन्दिर मां कराता धूप दहन ना धूमाडा नी शिखाने अंगे मयूरो ने वरसाद नो वहेम पड़े अने तेथी कोकारव करवा लागी जाय।"
(सिद्ध चक्र वर्ष ७ अंक ७ पृ०१५७) ___“सारा सारा वर्णवाला अने सारा सारा गन्धवाला द्रव्योनी अंदर उत्कृष्टता होवाने लीधे जे फूलो वर्ण गन्ध ने लीधे उपमा देवालायक
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