________________
२७२ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता *************************************** थायछे तेवां पुष्पो थीज भगवान जिनेश्वर महाराज नुं पूजन करवू जोइए.....ते फूलो परोयेलां होय, गुंथेला होय, वीटेलां होय, मांहोंमाहें नालवडे जोडेला होय, इत्यादिक अनेक प्रकारना पुष्पोए करीने भगवान् नुं पूजन करवू।" (सिद्धचक्र वर्ष ७ अं० ५ पृ० ११६) - "आरती अने मङ्गल दीवानी वखते नाटक करवू जोइए।"
- (सिद्धचक्र वर्ष ७ अं०६ पृ० २०२) अब जरा श्राद्ध विधि ग्रन्थ के भी कुछ वाक्य पढ़िये -
"शांति ने अर्थे घी, गोल सहित दीवो करवो, शांति तथा पुष्टि ने अर्थे अग्नि मां लवण नाखवू सारुं छे, खंडित सांधेलु, फाटेखें, रातुं तथा बिहामणुं एवं वस्त्र पहेरीने करेलुं दान, पूजा तपस्या, होम, आवश्यक प्रमुख अनुष्ठान सर्व निष्फल छ ।” (श्राद्ध विधि पृ० १५३)
“भगवान् आगल मङ्गल दीवा सहित आरती नो उद्योत करवो, तेनीपासे शगडी मूकवी, तेमां लवण अने जल नाखवा....बे दिशाए ऊंची अने अखंड कलश जलनी धारा देवी।" (श्राद्धविधि पृ० १५७)
“देवाधिदेव नी आगल कपूर नो दीवो प्रज्वलित करीने अश्वमेधनुं पुण्य पामें।
(श्राद्धविधि पृ० १५७) . (अश्वमेघ-घोड़े को अग्नि में होमना और इसमें भी पुण्य क्या यह मान्यता जैन धर्मानुयायी की हो सकती है? नहीं, पर मूर्ति पूजकों की तो होती होगी?)
"भगवान् नां चन्दन थी पोताना कपालादिक मां तिलक न करवू, भगवान् ना जल थी हाथ पण धोवाय नहीं।
(श्राद्धविधि पृ० २०६) कलिकाल सर्वज्ञ समान (सम्यक्त्व शल्योद्वार के मत से) श्री विजयानंद सूरि निम्न लौकिक श्लोक को प्रमाण में देकर समर्थन करते हैं, वो श्लोक यह है -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org