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________________ ११४ आनंद-श्रमणोपासक **************************************** आशा है कि अब तो सुंदरजी आनन्द श्रावक को मूर्ति-पूजक मानने की धृष्टता नहीं करेंगे। अब सुंदर मित्र ने और विजयानन्द जी ने किये दो कुतर्कों पर विचार करते हैं। सूत्र संक्षिप्त होने की कुयुक्ति सुन्दर मित्र और विजयानंदजी ने उपासकदशांग में श्रावकों के मूर्ति पूजन का कथन न होने में सूत्रों का संक्षिप्त होना बतलाया है, यद्यपि सूत्र संक्षिप्त होने की बात ठीक है, तथापि ऐसे विषय में सूत्रों के संक्षिप्त होने का अडंगा लगाना अनुचित है। क्योंकि - सारे उपासकदशांग में आनन्द श्रावक का प्रथम अध्ययन ही ऐसा है कि जिसने सारे सूत्र के तृतीयांश पृष्ठ रोक लिए हैं, शेष दो भाग में नौ श्रावकों का वर्णन है। आनन्दाधिकार में उसकी ऋद्धि, धन, क्षेत्र, वास्तु, दास-दासी, पशु और परिवार का कथन सविस्तार है आनंद ने किस प्रकार प्रभु दर्शन धर्मोपदेश श्रवण और व्रतग्रहण किये, अतिचार टाले, पौषध शाला में गया, एकादश प्रतिज्ञा का पालन किया, अवधिज्ञान उत्पन्न होना, गौतमस्वामी का आनंद से सम्मिलन होना, सम्वाद होना, आनंद का प्रश्न करना, गौतम स्वामी को शङ्का होना, प्रभु का शङ्का निवारण करना, गौतम स्वामी का आनन्द से क्षमा याचना, आनन्द का स्वर्ग गमन करना आदि बातों का जिसमें ठीक ठीक प्रतिपादन किया गया हो, यहां तक कि - आनंद को पानी कैसा पीना, घी एवं चांवल कैसे खाना, वस्त्र कैसे पहिनना, आभूषण कौनकौन से पहिनना, दंतधावन किस वस्तु से करना आदि बातें स्पष्ट बताई गई हो, वहाँ केवल मूर्ति स्थापित करने या मन्दिर बनवाने या पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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