________________
६४
चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण *****************************************
और इसका अर्थ करते हैं कि - इसके सिवाय अरिहंत, अरिहत प्रतिमा, भवितात्मा अणगार।
इस प्रकार “अरिहंत चैत्य' शब्द लेकर उसका अर्थ अर्हन्मूर्ति करके मूर्ति की पूजा करना आगम सम्मत बतलाते हैं, यह प्रयास इनका सर्वथा विफल ही है कयोंकि यहाँ अर्हन्-चैत्य का मूर्ति अर्थ करना असंगत है।
चमरेन्द्र प्रभु महावीर की शरण ग्रहण करके ही सौधर्म कल्प गया था और भयभीत होने पर आया भी उन्हीं प्रभु की शरण में, इसके सिवाय शक्रेन्द्र ने भी अरिहंत, भगवंत और अनगार बस इन ही की अत्याशातना मानी है। इस विषय में यहाँ सरल बुद्धि से यह समझना चाहिए कि -
. एक तो उस समय इस भारतवर्ष में कोई साक्षात् भाव अरिहंत थे ही नहीं। प्रभु महावीर भी छद्मस्थावस्था में द्रव्य तीर्थकर थे इसलिए अरिहंत जो कि भाव निक्षेप है उनकी अनुपस्थिति में द्रव्य अरिहंत की शरण ली गई इसलिए यह “अरिहंत चेइयाणि वा” अधिक पद. लगाने की आवश्यकता हुई। दूसरा जब छद्मस्थ तीर्थंकर (अरिहंत) की ही शरण लेकर गया और पुनः वापिस उन्हीं के शरण में आया तो फिर छद्मस्थ अरिहंत की शरण भी तो पृथक् बतलाना आवश्यक है न? बस इसी उद्देश्य से यह अरिहंत चैत्य शब्द छद्मस्थ अरिहंतों की शरण बतलाने के लिए रखा गया है। किन्तु मूर्ति की शरण कहना मिथ्या है, यदि मूर्ति की शरण ही चमरेन्द्र को इष्ट होती तो वह उसी सौधर्म देवलोक की शाश्वती मूर्ति जो कि उसके अत्यन्त निकट थी, छोड़कर और अपनी जानको जोखिम में डालकर मनुष्य लोक जैसे अत्यन्त दूर स्थान पर प्रभु महावीर के आश्रय में क्यों जाता?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org