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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा **********************************************
इससे हमारे मूर्तिमति मित्र कहते हैं कि - मूर्ति की शरण क्यों जाय जिसकी शरण लेकर गया हो उसी की शरण जाना चाहिए। किन्तु इनका यह कथन भी अयोग्य है क्योंकि जब कोई व्यक्ति विकट परिस्थिति में फंसा हो तो वह अपनी शान्ति और रक्षा के लिए सबसे सरल, सहज और अत्यन्त निकट आश्रय को ही ढूंढता है। यद्यपि उसका उद्देश्य अपने घर या अन्य किसी उच्च आश्रय स्थान पर पहुँचने का होता है, तथापि जब वह जानता है कि विपत्ति का पहाड़ सिर पर मंडरा रहा है और कुछ क्षणों में अपने पूर्व लक्ष्य को छोड़कर अपने अत्यन्त ही निकट के किसी निरापद आश्रय को ढूंढ़ता है।
विचार करो कि - एक मनुष्य नदी के उस पार जाना चाहता है। वह नदी के उस पार पहुँचने के लिए प्रस्थान भी कर चुका है। उसका ध्येय मात्र है उस पार पहुँचना। किन्तु यदि वह नदी पार करते करते थक जाता है, श्वास फूल जाता है, भुजायें ऐंठ जाती हैं तब अपनी जान बचाने के लिए पास ही के किसी आलम्बन को ढूँढ़ता है, उस समय वह किनारे का लक्ष्य छोड़कर पास ही के किसी टीले पत्थर या पेड़ आ दे का सहारा खोज कर उसी का आश्रय लेगा, जब उसकी थकान दूर होगी तब वह आगे बढ़ेगा।
अतएव सरल बुद्धि से समझिये कि यदि चमरेन्द्र को मूर्ति की शरण लेनी इष्ट होती तो वे अपनी खतरनाक परिस्थिति में अत्यन्त निकट स्थान वाली मूर्ति को छोड़कर इतनी दूर कदापि नहीं आता। अतएव मूर्ति की शरण कहना ठीक नहीं है।
अरे भाई! मूर्ति स्वयं अपना ही रक्षण नहीं कर सकती, जिससे बेचारी को ताले में बन्द रहना पड़ता है, भक्त लोग मूर्ति की रक्षा के लिए सशस्त्र पहरेदार रखते हैं, इतना होते हुए भी चोरियाँ हो ही जाती
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