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द्रौपदी और मूर्ति पूजा **************************************Y के सम्मुख वर वधू को बिठा कर पाणिग्रहण विधि कराई जाती है, वरवधू को ग्राम देवता भैरव भवानी, चंडी, शीतला, हनुमान, नाग, भूत आदि की पूजा वन्दनादि करनी पड़ती है। और इस प्रकार जैन मन्दिरों में भी जाते हैं, इन सबका प्रधान कारण दाम्पत्य जीवन सुखमय एवं वृद्धिमय होने की भावना ही है, अन्य नहीं। आपकी जैन विवाह पद्धति से तीर्थंकर मूर्ति स्थापन कर उसकी पूजा करके विवाह किया जाय, तो भी इसमें धर्म का कोई खास सम्बन्ध नहीं। यह सब सांसारिक कार्य है, क्योंकि इन पूजाओं में याचना मुख्यतः सांसारिक सुखों की होती है। जैसा कि आचार दिनकरकार ने जैन विवाह विधि में विधान किया है। ऐसी क्रियायें मूर्ति पूजा में धर्म नहीं मानने वाले वर वधू भी प्रचलित रूढ़ि के कारण करते हैं, ऐसी क्रियायें वर्तमान में ही होती है, ऐसा नहीं समझें। बल्कि पूर्वकाल में भी प्रकारान्तर से किसी न किसी रूप में होती थी। गजसुकुमार के पाणिग्रहण के लिये सौमिल हवन के लिए जङ्गल में लकड़ी लेने गया था और भी आगमोल्लिखित कथानक विवाह के समय हवन होने की रूढ़ि को बता रहे हैं और आचार दिनकरकार कन्दर्पादि पूजा का उल्लेख करते हैं। इन सबका धर्म से कोई खास सम्बन्ध नहीं है, ये सब संसार कामना से ओतप्रोत हैं, आप स्वयं ऐसे प्रसंग को रागरङ्ग का समय बता रहे हैं, भला ऐसे समय और वह भी द्रौपदी जैसी निदान कर्मवाली अर्थात् प्रधान भोग प्राप्ति की कामना वाली युवती के लिए धर्म भावना का होना कैसे माना जा सकता? जबकि उसी समय पूजा के बाद के पाठ में ही द्रौपदी की मानसिक अवस्था को बताने वाला सूत्र पाठ द्रौपदी को “पुव्वकय नियाणेणं चोईजमाणि' बताकर उसे भोग कामना वाली घोषित कर रहा है, तब आपकी युक्ति ठहर ही कैसे सकती है? सिद्ध हुआ कि द्रौपदी की
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