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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५१ ****************************************** उसे उस समय भोग भावना वाली सिद्ध कर रहे हैं, और इसी के चलते द्रौपदी ने भावी अखंड सौभाग्य और प्रचुरता से भोग सामग्री मिलने की कामना से ही पूजा की है, तथा ऐसी कामना कामदेव जैसे से ही की जा सकती है, धर्मदेव से नहीं। अतएव सिद्ध हुआ कि द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति तीर्थंकर की नहीं थी। विवाह प्रसंग के समय कामदेव की स्थापना व पूजा पहले प्रचुरता से होती थी। एक प्रमाण मूर्ति पूजक श्री वर्धमान सूरि के सं० १४६८ के रचे हुए आचार दिनकर का देखिये - "पर समये गणपति कन्दर्प स्थापनं। गणपति कन्दर्प स्थापनं सुगमं लोकप्रसिद्धं।" (विभाग १ विवाह विधि पत्र ३३) द्रौपदी विवाह के पूर्व परसमय-अजैन थी। और पर समय में विवाहोत्सव पर कन्दर्प पूजा पहले बहुतायत से सर्वत्र होती थी यह इस प्रमाण से सिद्ध हो गया। इतना ही नहीं प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक कहे जाने वाले कृत्य में भी कंदर्पादि को याद किया गया है। देखो आचार दिनकर विभाग २ प्रतिष्ठा विधि। इसके सिवाय जरा लोक व्यवहार को भी देखिये - . मालवा, मेवाड़, मारवाड़ आदि प्रान्तों में यह रिवाज है कि विवाहोत्सव के प्रारम्भ से ही अजैन और मिथ्यादृष्टि ऐसे देवों की पूजा वर और वधू दोनों ओर से की जाती है, मालवे प्रान्त में विवाह के प्रारम्भ में ही कुम्हार के घर महिलाएँ धूमधाम से जाती है और उसके चाक (बरतन बनाने के चक्र) की पूजा करती हैं उकरड़ी (कूड़े कर्कट का ढेर) आदि की पूजा वर वधू से कराई जाती है। गजानन के चित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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