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आनंद-श्रमणोपासक
आनंदाधिकार के इस पाठ का अर्थ पृ० १४ में इसी एशियाटिक सोसायटी की प्रति के अनुसार इस प्रकार दिया है।
“आज थी अन्य तीर्थीको ने अन्य तीर्थिक देवताओं ने अन्य तीर्थ के स्वीकारेलाने, वन्दन अने नमन करवूमने कल्पे नहीं।"
३. स्वयं सुंदर मित्र ने भी अपने मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास के चौथे प्रकरण पृ० ८० में यही पाठ दिया है उसमें भी यह “अरिहंत' शब्द नहीं है। इसके सिवाय पृ० ८१ में यह लिखकर कि “अरिहंत शब्द के लिए कई प्रतियों में होने पर भी आप इनकार करते हो।" स्वीकार किया है कि "अरिहंत शब्द कई प्रतियों में नहीं भी है।" यदि सभी और प्राचीन प्रतियों में “अरिहंत" शब्द होता तो सुन्दर मित्र "कई प्रतियों में होने पर" ऐसा कदापि नहीं लिखते। ____ अतएव सिद्ध हुआ कि - आनंद प्रतिज्ञा में “अरिहंत" शब्द मूर्ति पूजकों ने अधिक बढ़ा दिया है और इसका मुख्य आशय मूर्तिपूजा को आनंद प्रकरण में मिलाने का ही है किन्तु हमारे पूजक बन्धुओं की यह करामात भी यहाँ व्यर्थ ही सिद्ध हुई। इनके इस प्रक्षिप्त शब्द से भी इनका अभिष्ट सिद्ध नहीं हो सका और इस “अरिहंत" शब्द के होते हुए भी अर्थ तो प्रकरण सङ्गत “साधु" ही अनुकूल हुआ। क्योंकि- .. .
इस प्रतिज्ञा से आनन्द का यह आशय है कि मैं अन्य तीर्थिक अन्य तीर्थिकदेव और अन्य तीर्थिकों के ग्रहण किये हुए साधुओं को वन्दना नमस्कार आहार, जल, खादिम, स्वादिम नहीं दूंगा, वारम्बार भी नहीं दूंगा। बुलाने से पहले बोलूंगा भी नहीं आदि आदि यह विषय स्वयं अपनी शक्ति से यह बता रहा है कि यह प्रतिज्ञा मनुष्य से सम्बन्ध रखने वाली है। अलाप संलाप मनुष्य से ही होता है, आहारादि भी
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