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द्रौपदी और मूर्त्ति पूजा
हुई आत्मा के लिए तो कहना ही क्या ? स्पष्ट हुआ कि विवाह के पूर्व द्रौपदी जिनोपासिका होने के योग्य नहीं थी ।
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क्या द्रौपदी ने तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा की थी ?
जब यह स्पष्ट हो चुका कि - पाणिग्रहण के समय द्रौपदी सम्यक्त्व से रहित थी, तब यह समझना एकदम सहज हो गया कि उसकी पूजी हुई मूर्ति भी तीर्थंकर की मूर्ति नहीं थी। क्योंकि तीर्थंकर को देव मानकर तो सम्यक्त्वी ही वन्दते पूजते हैं, तब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि - द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति को “जिन प्रतिमा " सूत्र में ही बताया है, फिर इस जिन प्रतिमा को तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं माना जाय तो किसकी मानी जाय? इसके समाधान में कहा जाता है कि - 'जिन' शब्द के कई अर्थ होते हैं, जिनमें से कुछ हम सूर्याभ प्रकरण में दे चुके हैं, वहाँ श्री हेमचन्द्राचार्य के हेमी नाम माला का एक यह भी अर्थ है कि "कंदर्पोपि जिनोश्चैव” अर्थात् कंदर्प- कामदेवको भी जिन कहते हैं और यह अर्थ इस प्रकरण में बिलकुल उपयुक्त है क्योंकि द्रौपदी को निदान प्रभाव से कामदेव ही अधिक रुचता था वैसे कामदेव को भी जिन कहा जाय तो यह भी एक दृष्टि से योग्य ही है क्योंकि इसकी उपासना करने वाले अनन्त जीव हैं, अनन्त प्राणियों पर इसका अधिपत्य है। यहाँ तक कि पशु पक्षी से लेकर मनुष्य और देव तक इसके वशीभूत हैं बड़े बड़े ऋषि मुनि भी इसके झपेटे को सहन करने में अशक्त ठहरे, अधिक जाने दीजिये । स्वयं मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास के लेखक श्री ज्ञानसुन्दरजी (आप) भी इसके प्रभाव में ऐसे फँसे कि बहुत से सद्गृहस्थों को भी मात कर दिया जिसके लिए
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