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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ******************** ********** विवाह के पश्चात् जब द्रौपदी का पूर्वकृत निदान पूर्ण हो जाता है, तब वह जिनोपासिका होने के योग्य बनती है। विवाह के पूर्व द्रौपदी की मानसिक स्थिति व्यक्ति के जीवन वृत्तान्त से ही उसकी योग्यता का पता लग जाता है। द्रौपदी के सुकुमालिका भव के निदान और द्रौपदी के भव में उसकी पूर्ति पर विचार करने से ही यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि द्रौपदी की मानसिक स्थिति विवाह के पूर्व धर्म के सम्मुख होने योग्य नहीं थी। सज्ञान - यौवन अवस्था में प्रवेश करते ही पूर्व संस्कार के उदय से वह विपुल सुख भोग की अभिलाषिणी हुई हो, यह बिलकुल स्वाभाविक है और उसी के फल स्वरूप एक साथ वह पाँच पति की पत्नी बनी, बस इसी बात का विचार करने वाला द्रौपदी को कौमार्य जीवन में ही श्राविका मानने की भूल नहीं कर सकता । और सोचिये पुरुष के अधिक पत्नियों का होना तो आगमों से भी मालूम हो सकता है, पर किसी ने किसी भी प्रामाणिक आगम में यह पढ़ा कि किसी श्राविका ने एक साथ एक से अधिक पति बनाये हों ? तो इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। अतएव द्रौपदी का एक साथ पाँच पतियों का वरण करना ही स्पष्ट बता रहा है कि वह भोग • लालसा को बहुत समय से और अधिक प्रमाण से चाहने वाली होनी चाहिये । इस प्रकार पक्षपात रहित ठंडे मस्तिष्क से विचार किया जाय तो यही तथ्य निकलेगा कि - द्रौपदी के पूर्व संस्कार ही ऐसे थे कि जिसके कारण वह सज्ञान होते ही विपुल एवं विस्तीर्ण भोगों को प्राप्त करने की इच्छुक हुई । ऐसी स्थिति में विवाह के पूर्व साधारण तौर पर भी धर्म के सम्मुख होना कठिन है, तब निदान रूप कर्म से आच्छादित Jain Education International - १४७ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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