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द्रौपदी और मूर्ति पूजा
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क्या द्रौपदी विवाह के समय श्राविका थी? द्रौपदी के सुकुमालिका आर्यिका भव के निदान और उससे होने | वाले फल विपाक पर यदि सूक्ष्म दृष्टि डाली जाय तो मालूम होगा कि द्रौपदी विवाह के पूर्व श्राविका होने के योग्य नहीं थी, क्योंकि वह पूर्व भव में भोग लालसा की इतनी इच्छुक हुई थी कि उसने कोड़ी के लिए रत्न बेच देने की तरह भोग कामना की पूर्ति के लिये चारित्र रूपी धन की कमाई को खो डाला था और उसी कामना से मरकर देवलोक में गई, पुनः मनुष्यभव पाकर द्रौपदी पने उत्पन्न हुई यहाँ उसका निदान (पूर्व कामना) पूर्ण होने का था।
जैन आगम के जानकार भलीभांति समझते हैं कि - निदान वाले जीव का जब तक निदान पूर्ण नहीं हो जाय (फल नहीं मिल जाय) तब तक वह सम्यक्त्व से वंचित-जैनधर्म से दूर-ही रहता है, हाँ यदि मंदरस का निदान हो तब तो वह फल प्राप्त होने के बाद धर्म के सम्मुख हो सकता है, पर बिना फल प्राप्ति के तो सम्मुख नहीं हो सकता। इधर विवाह के समय भी द्रौपदी के विषय में शास्त्रकार लिखते हैं कि “पुव्वकय नियाणेण चोइजमाणि' अर्थात् पूर्व कृत निदान से प्रेरित हुई अतएव विवाह हो जाने के पूर्व ही द्रौपदी को श्राविका कहने वाले जैन आगम से अनभिज्ञ ही कहे जा सकते हैं।
इसके सिवाय समकितसार के रचयिता श्रीमद् ज्येष्ठमल्लजी महाराज साहब अपने इसी ग्रन्थ में लिखते हैं कि "ओघ नियुक्ति सूत्र की आचार्य श्री गंध हस्तिकृत टीका में द्रौपदी को एक संतान प्राप्ति के बाद सम्यक्त्व प्राप्त होना बताया है" इससे भी यही सिद्ध होता है कि
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