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२६६ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह **半******************************************* अर्थात् इस समय के बहुत लोगों का माना हुआ, दूसरा ढूंढियेसाधुमार्गी प्रतिमा को सर्वथा नहीं मानते इसलिये अपने पक्ष को उच्च बताने वास्ते तथा तीसरा कारण यह है कि इससे शासन अच्छा दिखता है इसीलिये हमने अन्य स्थलों पर चौथे गुणस्थान में मूर्तिपूजादि क्रिया को बतलाया है।
(१४) “अनुभवमाला' उर्फ "स्वानुभव-दर्पण' मूलकर्ता श्री “योगेन्द्रदेवजी'' विवेचनकार मूर्तिपूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० “लालन' मुद्रण समय वि० सं० १९६२ के कुछ दोहे निम्न प्रकार से हैं। "तीर्थो ने देहरा विषे, निश्चय देव न जाण। जिनवाणी गुरु इम कहे, देहमां देव प्रमाण|| ४१॥"
__ (पृ० ४३) भावार्थ - ए खातरी पूर्वक छे, एम जिनेश्वर भगवान् अने गुरु महाराज कहे छे, एटले के तीर्थमा अने देहरा मां देव नथी, परन्तु देव तो देहरूपी मन्दिरमांज छ।
"तन मन्दिर मां जीव जिन, मन्दिर मूर्ति न देव। राजा भिक्षार्थे भमे, एवी जनने टेव॥ ४२॥"
(पृ० ४७) नथी देव देहरा विषे, छे मूर्ति चित्राम। ज्ञानी जाणे देवने, मूख भमे बहुठाम।। ४३|| (पृ०५) खरो देव छे देहमां, ज्ञानी जाणे तेह। तीर्थ देवालय देव नही, प्रतिमा निश्चय एह॥४४॥
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