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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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श्री सुन्दरजी की यह युक्ति भी अनुचित है, क्योंकि सूत्र में जो 'असहेज देवासुर नाग" आदि पाठ कहा है, उसका तो यह मतलब है कि वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में पक्के आस्तिक थे, उन्हें धर्म से डिगाने को देवदानवादि भी समर्थ T ये नहीं थे, अ और न किसी की सहायता चाहते थे, तथा कर्म परिणाम को मानने वाले थे। इस पाठ से सांसारिक व्यवहार को अदा करने में कोई बाधा नहीं हैं ऐसे श्रमणोपासक भी गृहस्थावस्था में रहने के कारण पूर्व परम्परानुसार सांसारिक देवों की पूजा करे यह स्वाभाविक बात है। इससे इनकी सम्यक्त्व को किसी प्रकार की बाधा नहीं होती दृढ़ सम्यक्त्त्री आवश्यक संसार व्यवहार अदा करते हुए भी अपनी सम्यक्त्व को सुरक्षित रख सकते हैं। कुछ प्रमाण भी लीजिये -
(१) भरत चक्रवर्ती महाराजा ने दृढ़ सम्यक्त्वी होते हुए भी चक्ररत्न, गुफा, द्वार आदि की पूजा की। और देवों की आराधना किरने के लिए तप किया।
(२) शांति, कुंथु, अरह, इन तीनों तीर्थंकरों ने चक्रवतीपन में भरत की तरह परिस्थिति के अनुसार चक्ररत्नादि की पूजा की।
(३) अरक श्रमणोपासक ने नावा की पूजा की, और बलि भी चढ़ाई।
(४) अभयकुमार ने धारिणी देवी का दोहन पूर्ण करने (लौकिक कार्यार्थ) तेला किया।
(५) कृष्ण वासुदेव ने भी अपने छोटे भाई की उत्पत्ति के लिए तपश्चर्या कर देवाराधन किया।
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ये प्रमाण तो गृहस्थ सम्यक्त्वी श्रावकों के हैं, किन्तु मूर्ति पूजक साधु तो मूर्ति के कारण शिथिल होकर साधु धर्म के विपरीत अविरति देवों का स्मरण, ध्यान, स्तुति, नमस्कारादि करते हैं, देखिये -
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