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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५६ ***************************************** जबकि स्वयं मूर्ति पूजक टीकाकार इसी द्रौपदी के कथानक पर विचार कर लिखते हैं कि - "नच चरितानुवाद वचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति।" तब आपका कथानकों की ओट लेकर उससे आचार विधान बताना, सो भी मनःकल्पित युक्तियों से, यह कहाँ तक ठीक है? कथाओं की ओट के विषय में यहाँ हम इतना ही लिखकर अगले स्वतंत्र प्रकरण से सप्रमाण विशेष विचार करेंगे, किन्तु सुन्दर मित्र को अपने ही टीकाकार महात्मा के उक्त शब्दों पर विचार कर अपना हठवाद छोड़ देना चाहिए, इसी में भलाई है। (२१) कथाओं के उदाहरण हमारे मूर्ति पूजक बंधु अपनी मान्यता को आगमोक्त एवं महावीर प्ररूपित सिद्ध करने के लिए हमारे सामने कथाओं के उदाहरण पेश किया करते हैं। जहाँ जिस किसी मूर्ति पूजक से इस विषय में प्रमाण माँगा जाता है तब तुरन्त ये लोग गर्व पूर्वक सूर्याभ विजयदेव और द्रौपदी आदि के कथानकों को पेश करते हैं और मन में यह समझते हैं कि हमने प्रमाण पूर्वक मूर्ति पूजा की सिद्धि कर दी। इसी तरह चैत्य या बलिकर्म शब्द पर भी ये लोग उछल कूद मचाते हैं, हमारे प्रतिपक्षी मिस्टर ज्ञानसुन्दर जी ने गर्व पूर्वक ऐसे ही प्रमाण दिये हैं। यद्यपि सुन्दर बन्धु ने कथाओं के प्रमाण दिये, फिर भी बिना खिंचतान व अर्थ का अनर्थ किये। ये महानुभाव अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर सके। कहीं शब्दों का अर्थ मनःकल्पित किया तो कहीं भाव ही उल्टा बताया। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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