________________
१६०
कथाओं के उदाहरण ********************本*******本本学中**** वंश परम्परा से चले आते हुए जीताचार के कारण या भावी भोग, जीवन के सुखमय होने के लिए, किये गये कृत्यों को बिना किसी पुष्ट प्रमाण के धार्मिक कृत्य बता दिया, ऐसे ही चैत्य और बलिकर्म शब्द मात्र से या प्रक्षिप्त पाठों से भोले भक्तों को भ्रम में डालने का प्रयत्न किया, किन्तु ऐसा एक भी प्रमाण नहीं दिया कि जिस में आगमोक्त आचार विधान का उल्लेख हो या सर्वज्ञ प्ररूपित हो। इस प्रकार के उद्योग से सुज्ञ पाठक तो शीघ्र समझ जाते हैं कि यहाँ प्रमाण के नाम पर शून्य ही है। जो कृत्य धर्म का मुख्य अंग माना जाता हो, जो महावीर प्ररूपित कहा जाता हो, जिसे सुन्दरजी या अन्य महान् आचार्य मोक्ष का प्रमुख मार्ग कहते हों और उसी के लिए आगम प्रमाण में विधि वाक्य के नाम पर एक अक्षर भी नहीं मिला, यह मत मोहियों के लिए कितनी लजा की बात है?
सुन्दर मित्र! कथाओं के पात्र स्वतंत्र होते हैं, उनकी परिस्थिति, उनके विचार आदि सभी स्वतंत्र होते हैं, वे अपनी स्थिति योग्यता जवाबदारी आदि को लक्ष्य में रखकर जो भी कार्य करें, वह सबके लिए उपादेय नहीं होता न ऐसे उदाहरणों से कोई सिद्धान्त ही बन सकता है, कई बहुजन मान्य उत्तम पुरुषों के जीवन में भी कभी कभी ऐसी घटनायें हो जाती हैं कि उनके अनुयायी भी उसका अनुकरण नहीं करते, उदाहरण के तौर पर देखिये -
(१) श्री रामचन्द्र जी माया मृग के पीछे दौड़े और भ्रम में पड़कर सीताजी को छोड़कर वन में चले गये। इधर सीताजी को रावण ले ऊड़ा, इस पर नीतिकार कहते हैं कि - "ननिर्मिता केन न दृष्ट पूर्वा, न श्रुयते हेममयी कुरंगी। तथापितृष्णरघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीत बुद्धिः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org