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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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स्वर्ण गुलिका का भी एक नाम है। मूल पाठ में इस विषय में केवल " सुवण्ण गुलियाए" नाम मात्र ही आया है, इसके सिवाय इस विषय में कुछ भी नहीं है । इतने मात्र से मूर्ति पूजक महानुभावों ने मनमानी कथा गढ़ डाली है और वृत्तिकार ने उक्त " सुवण्ण गुलियाए" शब्द की व्याख्या में यहाँ तक लिख डाला कि चण्डप्रद्योतन स्वर्ण गुलिका के साथ महावीर प्रभु की गोशीर्ष चन्दन की एक मूर्ति भी ले भागा, समझ में नहीं आता कि टीकाकार ने यहाँ मूर्ति का कथन किस मूल के आधार से किया ? क्या इसे मूल की वृत्ति कहें, या अपने मत की वृत्ति ? मूल की वृत्ति रचते समय मूल से सर्वथा दूर, मूल के किसी भी अङ्ग के लिए अनुपयोगी ऐसे अंश रखने का क्या कारण? पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि प्रकरण का आशय केवल कामवासना से प्रेरित हुए मनुष्यों का (स्त्रियों के लिए युद्ध करने वालों का) वर्णन करने का है, यदि प्रकरण के आशय को ध्यान में रखकर यही बताया गया होता तो फिर भी चल जाता, किन्तु प्रकरण से बिलकुल दूर - सर्वथा दूर - ऐसी अपनी मानी हुई मूर्ति पूजा के लिये भी जहाँ चाहें वहाँ जबरदस्ती स्थान बना लेना, विचारक जनता में कभी आदर योग्य नहीं गिना जाता और फिर सुन्दर मित्र तो विचित्र महापुरुष ठहरे, जैसे उन्मादी मनुष्य को ऊपर से भङ्ग या मदिरा पिलादी जाय तो फिर उसके कार्य कुछ अजीब ढङ्ग के ही होते हैं, उसी प्रकार एक तो सुन्दर मित्र पहले
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ही साधुमार्गी समाज के पूर्ण द्वेषी, और दूसरे मूर्ति मत में मस्त, तिस पर उन्हें ऐसे टीकाकार महानुभावों के वर्णन रूप...... . पिलाया जाय तो. फिर इनका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़े यह स्वाभाविक ही है। इसी द्वेष और मूर्ति मोह में मस्त होकर सुन्दर बन्धु ने कथा और टीका की मादकता चढ़ाली, बस फिर क्या कहना, लगे अंट संट हांकने ।
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