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________________ ३०४ उपसंहार का संहार ******************************************** अनुचित है। क्योंकि यह स्थापना अनुचित होते हुए भी तीर्थंकरों की नहीं होकर आचार्य की ही है और आचार्य के सामने तीर्थंकर या उन की मूर्ति का चैत्यवंदन या सिद्धाचल पहाड़ का चैत्यवंदन, शांतिस्तोत्र आदि बोलना व्यर्थ ही है। साक्षात् में भी आचार्य को लक्ष्य कर या उनके संमुख उन्हें सुना कर-तीर्थंकर की प्रार्थना नहीं की जाती, तब स्थापनाचार्य के सामने तो ये चैत्य वंदनादि कैसे हो सकते हैं? अतएव आपके हिसाब से ही आपके ये कृत्य निष्फल और व्यर्थ ठहरते हैं। बन्धुवर! स्तुति स्वाध्याय या जाप हम धर्म स्थानों में कर सकते हैं। इसके लिये कल्पित मूर्ति की आवश्यकता नहीं। हम अपने क्षयोपशम के अनुसार पुण्य या निर्जरा बिना मूर्ति के ही कर सकते हैं। इतना ही नहीं मूर्तियों और मन्दिरों से वंचित रह कर हमने अपने को कर्मों के बहुत से बन्धनों से बचा लिया। जिसमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय आदि की मुख्यता है। क्योंकि मन्दिरों और मूर्तियों की सजावट आकर्षकता से सभी इन्द्रियों के विषयों का पोषण होता है, चक्षुओं को मोहने वाली सजावट कर्णों को प्रिय लगने वाला गान-वादन, घ्राण-प्रिय सुवासित पुष्प, धूप, बत्ती, इत्रादि, रसेन्द्रिय को चलित करने वाली मेवा मिठाई की भेंटे तथा स्पर्शेन्द्रिय को जागृत करने वाले स्नान मर्दनादि प्रायः सभी कर्म बन्धन में जकड़ने वाले हैं, विवाह आदि उत्सव के समय सजावट और गान वादनादि होता है, वहाँ जाकर यदि कोई विराग भाव से लौटता हो तो मन्दिरों से विराग भाव प्राप्त होने की बात सत्य कही जा सकती है। यद्यपि विवाह आदि के समय सांसारिक गीत गाये जाते हैं और मन्दिरों में भजन। किन्तु वहाँ भी साधारण जनता हारमोनियमादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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