________________
जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
****************
Jain Education International
३०३
****
भान्यता ठीक नहीं है । स्थानकवासी समाज बिना मूर्ति के ही सामायिक, संवर, दया, पौषध और अनेक प्रकार के तप, दान आदि सद्कार्य कर सकते हैं। हमारे पूर्वज आनन्द कामदेवादि ने भी मूर्ति मन्दिर और यात्रा के बिना ही धर्म साधन कर लिया था । हमें भी धर्म साधन में मूर्ति की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, जो लोग मूर्ति पूजा या यात्रादि में आरम्भ, परिग्रह त्याग तथा निवृत्ति बतलाते हैं वे सम्यग् श्रद्धान से दूर हैं क्योंकि मूर्ति पूजा और यात्रा में प्रत्यक्ष रूप से आरम्भ समारम्भ रहा है। सभी जानते हैं कि इन लोगों के उक्त कार्यों में व्यर्थ का आरम्भ और फिजूल द्रव्य व्यय होता है, इस प्रकार की क्रियाओं में संवर, संयम, निवृत्ति या सन्मार्ग में अर्थ व्यय नहीं होते । इसलिये सुन्दर मित्र का उक्त अहंकार युक्त कथन सर्वथा असत्य है । आगे आप लिखते हैं कि -
(२) " द्रव्य पूजा नहीं करने वाले भी मन्दिर में जाकर नवकार की माला, नमोत्थुणं या स्तवन बोल तीर्थंकरों की निरन्तर प्रतिज्ञा पूर्वक भक्तिकर शुभ कर्मोपार्जन तथा कर्म निर्जरा करते थे, उनसे वंचित रहे, वे उल्टे निन्दा कर कर्मबन्धन करने लगे । " उक्त कथन में अहंकार की मात्रा अधिक रही है, मैं सुन्दर मित्र से पूछता हूँ कि क्या स्थानकवासी समाज के लिये नवकार जपने नत्थूणं आदि से स्तुति करने के लिये मंदिरों तथा मूर्तियों के सिवाय कोई स्थान ही नहीं है? क्या बिना मूर्ति के किया हुआ जा या स्तुति व्यर्थ हो जाती है? यदि ऐसा ही है तो आप लोगों के जाप प्रतिक्रमण स्वाध्यायादि भी व्यर्थ हो जायँगे । क्योंकि आप भी उक्त मूर्ति के सामने नहीं करके, अपने ठहरने के स्थान पर भी करते हैं। यदि आप स्थापनाचार्य के संमुख करने का कहें तो यह भी
1
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org