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________________ ३०२ उपसंहार का संहार मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, उक्त मन्तव्य में स्वामीजी ने मूर्ति पूजा का प्रारम्भ जैनियों से बताया, यह शायद उनके समय जैनियों में मूर्ति पूजा की अधिकता या ऐसे ही किसी कारण से हो। अन्यथा मूर्ति पूजा का प्रारम्भ पहले सांसारिक भूत प्रेतादि की मूर्तियों से और बाद में बौद्धमत से हुआ है। ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है। इस प्रमाण को यहीं समाप्त करते हुए हम पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वे स्वयं उक्त तीनों प्रकार के प्रमाणों पर विचार करें, उन्हें स्पष्ट ज्ञात होगा कि मूर्ति पूजा से आत्मकल्याण मानने वाले सत्य से सहस्रों कोस दूर हैं। (४०) उपसंहार का संहार श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कल्पना तरङ्ग में बहते हुए चौथे प्रकरण की समाप्ति की है उसके उपसंहार पृ० ११५ में सर्व प्रथम लिखा है कि - . “एक मूर्ति को न मानने से हमारे स्थानकमार्गी भाइयों को कितना नुकसान हुआ है उसको भी जरा पढ़ लीजिये। (१) मूर्ति न मानने से जो लोग तीर्थ यात्रार्थ जाते थे मास दो मास आरम्भ परिग्रह, व्यापार और गृहकार्य से निवृत्त पाते थे, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते थे, शुभ क्षेत्र में द्रव्य व्यय कर पुण्योपार्जन करते थे, उन सब कार्यों से उन्हें वंचित रहना पड़ा।" सुन्दर मित्र का अभिप्राय यह है कि मूर्ति और तीर्थ यात्रा करने से ही आरम्भ परिग्रहादि का त्याग, ब्रह्मचर्य पालन और दानादि होते हैं। मूर्ति नहीं मानने से उक्त सत्कार्य नहीं हो सकते। किन्तु यह Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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