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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
३०१ ****************************************** उन देवताओं का भी कोई जिक्र नहीं है जिनको इन पेशेवर गुनहगारों ने कल्पित करके झूठ और बेईमानी की दुकान खोली है।
.. . (“धर्म के नाम पर" पृ० १३३ का पाखंड प्रकरण)
(३) “सरस्वती" मासिक पत्रिका जुलाई सन् १९१६ में देवोत्तर का इतिहास पृ०७-२० में एक विद्वान् लिखते हैं कि -
"मूर्ति पूजा की उत्पत्ति या तो यहीं की बसी हुई जङ्गली जातियों की नकल करके हुई होगी, या उस समय की बाहर से धावा करने वाली जातियों की देखा देखी सीखी गई होगी xx बुद्ध के जीवन में शायद उनके लिए कोई मन्दिर नहीं बनाया था, परन्तु उनकी मृत्यु के उपरांत बहुत से मन्दिर बन गये जिन में उनकी मूर्तियां रक्खी गई x जब तांत्रिक बौद्ध मत का प्रचार बढ़ा तब बहुत से मन्दिर बनाये जाने लगे x तांत्रिक मत के अनुसार बौद्ध, वैष्णव और शैव मतों का मेल होकर ऐसा धर्म निकला जिसमें देवता और देवी की पूजा साथ साथ होने लगी। शक्ति या प्रकृति की पूजा पांचवीं या छट्ठी शताब्दि से शुरु हुई। तांत्रिक मत ही के बाद से मूर्ति पूजन ने जोर पकड़ा।"
(जैन साहित्य में विकार थवाथी थयेली हानि पृ० २४१ से)
(४) स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि -
प्रश्न - मूर्ति पूजा कहाँ से चली? उत्तर - जैनियों से। प्रश्न - जैनियों ने कहाँ से चलाई? उत्तर - अपनी मूर्खता से आदि। पाठकों को ध्यान रखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द सरस्वती
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