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प्रवेश
तक अशरीरी (सिद्ध) नहीं हो सकता (भले ही एक शरीर को छोड़कर दूसरे में चला जाय) अतएव अशरीरी होने के लिये आत्मा को इस शरीर में रहकर ही आत्म-कल्याण करना होता है। जब शरीर में रहकर ही आत्म-साधना होती है तब देह को टिकाये रखने की भी आवश्यकता है। देह टिके रहने पर ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की विशेष आराधना कर कर्म बन्धन से आत्मा हल्का होता हुआ ऊर्ध्व गमन करता है। ऐसी अवस्था में शरीर को टिकाने के लिये खान, पान और वस्त्रादि की आवश्यकता भी अनिवार्य है। इसीलिए आत्मकल्याण और परोपकारार्थ आवश्यकता के अनुसार निर्ममत्व बुद्धि से साधुओं के भोजन पान और वस्त्रादि से शरीर निर्वाह करने का आगमों में विधान है। आगम के अभ्यासी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं।
इसके सिवाय धर्मोपकरण में रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि भी चारित्राराधन-आत्मोत्थान-में मुख्य साधन है। जिनके सदुपयोग से साधक महात्मा छोटे-छोटे जन्तुओं की रक्षा करते हुए अपनी संयम यात्रा में प्रयत्नशील रहते हैं। प्रमार्जन करने के लिये रजोहरण और निरवद्य (निर्दोष) भाषा बोलने के लिए मुखवस्त्रिका का होना परमावश्यक है। जिससे प्रथम तो अहिंसा महाव्रत का पूर्णतया पालन होता है, दूसरा संसार को मूक भाषा में अपने विशिष्ट सिद्धांतों का परिचय देकर धर्माभिमुख करने की भावना और तीसरा जिनाज्ञा की आराधना होती है। इस तरह कई प्रकार के लाभ होते हैं। अतएव धर्मोपकरण की भी आवश्यकता अनिवार्य और आगम सम्मत है। ____ यद्यपि साधक महानुभाव आहार, वस्त्र, पात्रादि का उपयोग कर शरीर रक्षा करते हैं तथापि निर्ममत्व बुद्धि (आसक्ति रहित)
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