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॥ णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥
जैनागम चिरुद्ध मूर्ति पूजा
प्रवेश
जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । निवृत्ति का अर्थ है -अलग रहना, आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों (पुद्गलों) से विरक्त रहना निवृत्ति मार्ग है। और पुद्गलों में आसक्त रहना है - प्रवृत्ति मार्ग । जब तक प्राणी पुद्गल से अपना सम्बन्ध नहीं छोड़ता और घर, हाट, हवेली, धन, धान्य, स्त्री, परिवार, वस्त्र, आभूषण तथा वाहन आदि में लिप्त रहकर प्रवृत्ति की ओर ही बढ़ता जाता है, तब तक उसको आत्मशांति प्राप्त होना असम्भव एवं अशक्य ही है। ज्यों-ज्यों आत्मा की पुद्गल शक्ति घटती जायगी, त्यों-त्यों उत्थान होता जायगा, क्योंकि पुद्गल प्रेम ही आत्मा को भारी बनाकर भवभ्रमण के चक्कर में डालता है। इसीलिए जैनागमों में निवृत्ति को ही प्रधानता दी गई है। जैन समाज के साधु-महात्मा इस सिद्धांत के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, इसी उद्देश्य से उन्हें निर्ग्रथ विशेषण से सम्बोधन किया गया है।
यदि यहाँ कोई शङ्का करे कि जब पुद्गल त्याग ही धर्म है तब फिर सूत्रों में साधुओं के लिये आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग करने का विधान क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि - आत्मा शरीर के आधार से रहता है, शरीर द्वारा ही आत्मा ने कर्म बन्धन किये हैं और कर्म बन्ध के फल स्वरूप ही यह शरीर प्राप्त हुआ है। जब तक आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त न हो जाय तब
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