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जड़ वस्तु पूजनीय न होवाथीज श्री जिनेश्वर देवना शरीरने अग्निने आधीन करे छे, अथवा अग्नि संस्कार करी तेनी राखने क्षीर समुद्र मां पधरावी दे छे। आ ऊपर थी स्पष्ट थाय छे के गुणग्राम करवाना छे ते चैतन्यना, अने वंदनीय पूजनीय छे ते पण चैतन्य जड़ नहिं, एटले तीर्थंकर नाम कर्मनी उपार्जना तीर्थंकर देव तरीके रहेला आत्माना नहिं तेना शरीरना, के तेनी मूर्तिना, गुणग्राम करवाने व्यवहार मां पण "अमुक घर घणुं खानदान छे" एमजे वखाणाय छे ते घर एटले पत्थर ईंट के चूना माटी थी बनेलुं ते नहिं पण ए घरमा रहेनार मनुष्यो सद् चारित्रवान - उत्तम नीति वाला होय तेथीजए घर वखाणाय छे, मनुष्य थी घरनी महत्ता छे कांई घरथी मनुष्यनी कीमत नथी, अर्थात् तीर्थंकर नाम कर्मनुं निमित्त तीर्थंकर देवनागुण ग्रामछे, नहिं के तीर्थंकर देवनी बनावटी मूर्ति ।
ज्यां मूर्ति पूजा घुसाड़वानी वृत्तिवालुं मानस छे त्यां पोतानुं कथन पोतानो पुरावो केटलो वास्तविक छे, केटले अंशे सप्रमाण छे तेनो कांई पण विचार कर्या बिना मात्र जेम आव्युं तेम कही के लखी नाखे छे एतो घणी उतावल छे ।
बलि कर्म
कर्म मां मूर्ति पूजा कई रीते समाणी ? तेनो कोई विचार के हेतु बिना मात्र बलिकर्म एटले प्रभूनी मूर्तिनी पूजा, बलिकर्म मात्र जैन करेछे एवं तो कांई छे नहिं, सम्यक्त्वी योय के मिथ्यात्वी होय, पण ज्यां स्नाननी - देह शुद्धिनी क्रिया होय त्यां बलिकर्म होयज । तीर्थंकर देव ना व्याख्यानमां जती वखते बलिकर्म होय अने वेश्या ने त्यां जती वखते पण बलिकर्म होय, राज कचेरी मां जती वखते पण होय अने
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