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________________ २१४ 'विकृति का सहारा *************************************** रहता है, मैं तो वहीं जाऊँगा। पाठक समझ गये होंगे कि यह पुद्गलानंदी पना (जो कि जीव के साथ अनादि से लगा हुआ है) लोगों को मूर्ति पूजा की तरह बरबस आकर्षित करता है। इसमें अधिक प्रचार की भी जरूरत नहीं पड़ती। एक बच्चा तो क्या पर बड़े-बड़े विद्वान् भी सुखशीलियापन के चलते अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए इसे अपना लेते हैं, हाँ जाहिर में वे लोग अपनी शिथिलता को प्रकट नहीं करते, किन्तु वास्तव में मुख्य प्रभाव पुद्गल लुब्धता का ही है जो उनके बाद के जीवन से चरितार्थ होता है। . इस प्रकार संसार की साधारण जनता अपने अज्ञान के कारण वहेम, मतमोह, पुद्गलासक्ति (आडम्बर प्रियता) आदि के कारण अपने मान्य सिद्धान्त के विरुद्ध आचरण भी करने लग जाती है, किन्तु इतने मात्र से वह सिद्धान्त बाधित नहीं हो जाता, न इस विकृति की ओट से कोई अपना पाखण्ड किसी के सिर लाद सकता है। ____ श्रीमान् ज्ञानसुन्दर जी ने पांचवें प्रकरण में भोली जनता को भ्रम में डालने के लिए मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिक्ख, आर्य समाज तथा साधुमार्गी जैन समाज को ही (विकृति की ओट लेकर) मूर्ति पूजक बता दिये । वास्तव में सुन्दर मित्र का यह समझ फेर ही है, इन्हें ध्यान में रखना चाहिए कि जिस प्रकार क्रिश्चियन, इस्लाम, आर्य समाज आदि के मूल सिद्धान्त मूर्ति पूजा के अनुकूल नहीं है, उसी प्रकार जैन समाज भी मूर्ति पूजा को मानने वाली नहीं है, किन्तु जिस प्रकार हरएक धर्म समाजों में विकृति हुई है, उसी प्रकार जैन समाज में भी हुई है और विकृति के अन्य अनेक प्रकारों में इस मूर्ति पूजा को भी मुख्य स्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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