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आनंद-श्रमणोपासक ***************************************** इसका भी उक्त अर्थ ही होता है, किन्तु यह शब्द नहीं होने पर भी यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है फिर इस शब्द की आवश्यकता ही क्या? अतएव कुतर्क करना छोड़कर सत्य अर्थ को मान्य करने की सरल बुद्धि को स्थान दीजिए। आगे चलकर आप फिर मूर्खता पूर्ण बात लिखते हैं - __“अरिहंत और जैन एक है या भिन्न २ हैं? यदि आपको प्रतिमा ही नहीं मानना है तो फिर अरिहंत का साधु कहने में क्या हर्ज था xxx पर इतनी अकल आवे कहाँ से?"
अक्लमंद सुन्दरजी! मूर्खता का प्रदर्शन तो स्वयं कर रहे हैं, एक बच्चा तक जानता है कि अरिहंत और जैन एक नहीं, किन्तु भिन्न हैं। एक है उपास्य तो दूसरा है उपासक, अरिहंत हैं देव तो जैन है उन देव का उपासक, इस सीधी और सरल बात को भी नहीं समझने वाले सुन्दरजी की सुन्दर बुद्धि की बलिहारी है, क्या यह मूर्खता का प्रत्यक्ष ताण्डव नहीं है? हाँ अरिहंत और जिन को एक लिखते तब तो कोई बात नहीं थी, पर विद्वता का मिथ्या घमण्ड कर अन्य की निंदा करने में निपुण सुन्दर मित्र के कलुषित हृदय में तो काली वस्तु भरी है, सुंदरजी के इस सुंदर (?) पोथे में ऐसी तो कई अनर्थ कारक अशद्ध वस्तुएँ हैं कोई पृष्ठ ऐसा नहीं निकलेगा कि जो शुद्ध हो, कहीं शब्द ही अशुद्ध तो कहीं प्रयोग अशुद्ध, पाया जाता है कि पोथे की असल प्रति में तो अनगिनत की अशुद्धियां होगी, किन्तु अन्य अजैन या जैन परिभाषा से अनभिज्ञ किसी से कुछ शुद्धि अवश्य कराई है तो भी यह तो अवश्य है कि भाषा का प्रयोग एकदम अशुद्ध है, जो किसी भी हिंदी के साधारण ज्ञाता से छुपा हुआ नहीं है।
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