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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १९१ होता हुआ दिखाई देगा। छोटे से लेकर बड़े विद्यालयों में भौगोलिक नक्शे मात्र दिखाने के लिए ही रक्खे हुए मिलेंगे, अनेक प्रकार के चित्र मात्र देखने के लिए ही रखे जायेंगे, अजायबघरों में अनेक प्रकार के चित्र और मूर्तियें रक्खी हुई मिलेंगी वो भी केवल देखने के लिए ही न कि उसकी हद को छोड़कर अधिक-सीमातीत-व्यवहार करने के लिए। ऐसी सूरत में स्थापना सत्य की ओट लेकर उससे मूर्ति पूजा करने का प्रमाण मान लेना सत्य को झूठ और दिन को रात कहने के समान है। जबकि नाम सत्य को गुण से न मिलाकर केवल नाम ही को माना जाता है, तब स्थापना सत्य को अधिक महत्त्व देने का क्या मतलब है? स्वयं टीकाकार भी कुल वृद्धि के गुण से रहित ऐसे कुल वर्द्धन नाम को भी नाम सत्य कहते हैं और रूप सत्य में किसी भांड ने साधु का वेश पहन लिया हो तो उसे केवल रूप मात्र से ही सत्य कहते हैं (इससे अधिक गुण आदि से नहीं) देखो टीकाकार का मत। "नामतःसत्या नाम सत्या यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इति, तथा रूपतः सत्या रूप सत्यायथा दंभतो गृहीत प्रव्रजित रूपः प्रजाजितीयमिति।" (प्रज्ञापना सूत्र बाबू० पत्र ३७२) इसी प्रकार व्यवहार सत्य का भी समझें। इस विषय में भी टीकाकार ने उदाहरण दिया है कि - जैसे कि पर्वत पर के घास आदि के जलने पर पर्वत जलने और भाजन में से पानी टपकते भाजन टपकने का कहना लोक व्यवहार से सत्य है, वैसे ही योग सत्य में दंड के योग से दण्डी, छत्र के योग से छत्री कहना योग सत्य है। तालाब को समुद्र की उपमा देना औपम्य सत्य है। इन सबका मतलब सीमा में रह कर मानने से है और वहीं तक माने तो सत्य है अन्यथा अधिक मानने पर मिथ्या हो जाता है। यदि कुलवृद्धि के गुण से रहित व्यक्ति के कुल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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