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आनंद-श्रमणोपासक
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यक्षायतन-व्यंतरायतन में नहीं ठहरते, किसी भी प्रामाणिक सूत्र में यह नहीं लिखा है कि कभी प्रभु तीर्थंकर मन्दिर में उतरे हों, ठहरे हों, फिर आपका यह अनर्थ कैसे मान्य हो सकता है? और आपके ही टीकाकार महाराज ने तो ऐसे चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन ही किया है और विशेष में अर्हत् मन्दिर होने का निषेध ही कर दिया है। क्या अब भी आपकी बोलती बन्द नहीं होगी?
और देखिये सुन्दर मित्र ! जिस प्रकार उपासक दशांग की नोंध में "चेइयाई” शब्द आया है, उसी प्रकार यही शब्द अन्तकृत दशांग अनुत्तरोपपातिकदशांग की नोंध में भी आया है। इन सूत्रों में साधुओं काही वर्णन है, तो क्या आपके सुन्दर हिसाब से साधुओं के मन्दिर या साधुओं के बनाये जैन मन्दिर अर्थ होगा? कदापि नहीं ।
फिर आगे बढ़िये, विपाक सूत्र की नोंध लेते हुए दुःखविपाक के विषय में भी यही बताया गया है कि
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"दुह विवागाणं णगराइं उज्जाणाइं "चेइयाई” ।” अर्थात् - दुःखान्त विपाकों के नगर, उद्यान, चैत्य थे ।
कहिये मित्र! क्या उन दुखान्त विपाक - अनार्यों म्लेच्छों के भी जैन - आर्हत् मन्दिर थे, या उन्होंने भी तीर्थंकर मन्दिर बनवाये थे ? क्योंकि पाठ तो सभी जगह इसी तरह एक समान है, फिर यहाँ आप अनार्यों के आर्हत् मन्दिर क्यों नहीं मानते हैं? किन्तु हठ भी तो कोई चीज हैं। यहाँ तो आप जिन मन्दिर नहीं मानंगे, और उन आदर्श श्रमणोपासकों को जबरदस्ती मूर्ति पूजक सिद्ध करने के लिए वहाँ अपनी इच्छा से ही अनर्थ ठोक देंगे, यह सरासर अभिनिवेश मिथ्यात्व है।
हमारे इतने कथन से आपकी समवायांग की ओट तो गिरकर चूर चूर हो गई, अब हम आपकी लचर दलील से उपासक दशांग के
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