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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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अर्थात् - वाणिज्य ग्राम नामक नगर था, वर्णन योग्य उस वाणिज्य ग्राम नगर के पूर्वोत्तर दिशा भाग में दुतिपलास नामक चैत्य (व्यंतरायतन) था। उस वाणिज्य ग्राम नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था वर्णन योग्य, उस वाणिज्य ग्राम में आनन्द नामक गाथापति रहता था वह समृद्ध यावत् अपराभवित था।
जो नोंध समवायांग में नगर आदि के विषय में आई है वह इसी विषय की है, इसमें चैत्य का नाम “दुतिपलास' कहा है। यह दुतिपलास नामक चैत्य कोई जिनमन्दिर या मूर्ति नहीं किन्तु व्यंतरायतन ही है, ऐसे नगरी के वर्णन के साथ आये हुए चैत्यों का अर्थ टीकाकार अभयदेव सूरि ने भी यही किया है। देखिये -
_ "चेइएति-चितर्लेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं संज्ञा शब्दत्वाद् देव बिम्बम् तदाश्रयत्वात् तद् गृहमपि चैत्यं तच्चेह "व्यंतरायतनम्" नतु भगवता मर्हतायतनम्।"
इसी प्रकार समवायांग सूत्र में ज्ञाता धर्मकथा सूत्र की नोंध के चैत्य शब्द का भी टीकाकार ने इसी प्रकार व्यंतरायतन अर्थ किया है। देखिये.. चैत्यं-व्यंतरायतनं। आगमोदय समिति पत्र १०८ सूत्र १४१। यही अर्थ उपासक दशांग के चैत्य शब्द का भी है, क्योंकि एकसा सम्बन्ध होने से टीकाकार ने आगे ऐसे शब्दों की टीका नहीं की, फिर विजयानन्दजी और सुन्दर मित्र क्यों मिथ्या अडंगा लगाते हैं? क्या सुन्दर मित्र आप टीकाकार से भी अधिक आगे बढ़कर अनर्थ तो नहीं कर रहे हैं? बतलाइये आप झूठे या आपके टीकाकार ? महाशय! अनर्थ करते लजाइये, कुछ परभव का भी भय रखिये यदि उस समय जिन मन्दिर-तीर्थंकर मंदिर होते तो प्रभु उनमें ही ठहरते, उन्हें छोड़कर
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