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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२८३ ******************************************** माने हुए मन्दिर मूर्ति और उनकी यात्रा का जैनधर्म में स्थान ही नहीं होना सिद्ध होता है तथा यात्रा के प्रश्न में भी श्री महावीर का मूर्ति पूजक भाइयों के तीर्थों का नाम तक नहीं लेना, यह स्पष्ट खंडन है।
(२) प्रश्न व्याकरण के प्रथम आस्रव द्वार में देवालय-मन्दिर मूर्ति, स्तूप, चैत्य आदि के बनवाने को हिंसाकारी कृत्य और उसका अनिष्ट फल बताया, यह भी स्पष्ट खंडन है।
(३) आचारांग सूत्र में धर्म के लिए पृथ्वी आदि छह काया की हिंसा करने में पाप बता कर उसका फल अहितकारी बताया है और मूर्ति निर्माण से लगाकर प्रतिष्ठा, पूजा आदि सभी हिंसाकारी कार्य है, उक्त सूत्रानुसार इसका फल भी वही होना चाहिए, यह भी स्पष्ट खंडन ही समझना चाहिए।
(४) ठाणांग सूत्र के तीसरे स्थान में लिखा है कि संसार भर में स्थावर तीर्थ तीन हैं, तद्यथा - १. मागध, २. वरदाम, ३. प्रभास जिन्हें चक्रवर्ती अपने अधिकार में रखते हैं, इन तीनों तीर्थों के सिवाय शत्रुजय, गिरनार, आबू, सम्मेदशिखर आदि किसी भी तीर्थ का नामोल्लेख नहीं किया, अतएव ये भी आगमानुसार तीर्थ नहीं कहे जा सकते। जब तीर्थों की गणना के समय भी इनकी उपेक्षा की गई तो यह खण्डन ही हुआ।
___ (५) दशवैकालिक सूत्र में परम मंगलकारी धर्म में अहिंसा, संयम और तप को ही स्थान है, मूर्ति पूजा को नहीं।
(६) श्रमण वर्ग के पंच महाव्रत रात्रि भोजन त्याग महाव्रतों की २५ भावनायें, उभयकाल आवश्यक करने, समिति-गुप्ति आदि विषयक विधान विस्तृत रूप में उपलब्ध है, किन्तु किसी भी विधान में मन्दिर मूर्ति के दर्शन करने, यात्रार्थ जाने, तद्विषयक उपदेश देने आदि
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