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________________ २८२ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह ****************至********************李宏宇 सके? इस पर से एक बच्चा भी समझ सकता है कि गुण पूजक जैन समाज मूर्ति पूजा का किसी भी सूरत में आदर करने वाला नहीं है। बस इतने मात्र से यह समझ लेना बिलकुल सहज है कि “मूर्ति पूजा जैन मान्यता के विरुद्ध है।" न तीन में, न तेरह में - हम ऊपर दिखा चुके हैं कि - भगवान् महावीर और गौतम आदि गणधरों के समय मूर्ति पूजा में धर्म मानने की जैनियों में श्रद्धा ही नहीं थी, इसीलिए गणधर रचित आगमों में इस विषय का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। अब सुन्दर मित्र की विशेष संतुष्टि के लिए यहाँ आगमों से मूर्ति पूजा का खंडन सिद्ध कर दिखाते हैं। पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि खंडन-विरोध “प्रतिकार” से भी होता है और "उपेक्षा' से भी। यहाँ हम अंतिम शैली से मूर्ति पूजा का खंडन सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं यथा - (१) अजैनों में तीर्थयात्रा करने का रिवाज भगवान् महावीर के समय था, भगवती और पुप्फिया सूत्र में सोमिल के प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि - "स्वयं वीर प्रभु ने सोमिल को कहा कि हमारे मत में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि से आत्मविकास करना ही यात्रा है। ऐसा ही उत्तर थावच्चा अनगार ने शुकपरिव्राजक को दिया। ऐसा ज्ञाता धर्म कथा सूत्र में उल्लेख है, किन्तु मूर्तिपूजकों के माने हुए तीर्थ और उनकी यात्रा का नाम तक नहीं लिया। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थों के पहाड़ और तदाश्रित रहे हुए मन्दिर मूर्ति को मानने या इनकी यात्रा करने की रीति जैन समाज में थी ही नहीं। इसी से इसका उल्लेख नहीं करके आत्मिक गुणों के विकास करने को ही जैनधर्म में यात्रा होना बताया। इस प्रकार मूर्ति पूजक बन्धुओं के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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