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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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(१)
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है, इसमें गुण पूजा को ही मुख्यता दी गई है, व्यक्ति पूजा को नहीं। जब तक तीर्थंकर प्रभु गृहस्थावस्था में रहते हैं, तब तक उन्हें एक सामान्य साधु जैसा मान भी कोई साधु या श्रावक नहीं देते और जब दीक्षित होकर छद्मस्थावस्था में रहते हैं तब तक वे एक साधु की ही कोटि में गिने जाते हैं। तीर्थंकर या केवली तरीके नहीं तथा जब उनका निर्वाण हो जाता है तब उनके भौतिक शरीर को अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया जाता है। भौतिक शरीर (शव) की मौजूदगी में ही तीर्थंकर विरह मानकर शोक छा जाता है। उस शरीर को साधु साध्वी या गणधरादि वन्दना नमस्कारादि नहीं करते, इससे स्पष्ट हो गया कि जैन समाज व्यक्ति पूजक नहीं, पर व्यक्ति के महान् व्यक्तित्व (गुण) का ही पूजक है। हाँ, व्यक्तित्व के साथ व्यक्ति की पूजा तो होती है, क्योंकि व्यक्तित्व व्यक्ति में ही रहता है भिन्न नहीं, किन्तु व्यक्तित्व के अभाव में व्यक्ति पूजा नहीं होती जैसे कि -
कोई साधु वर्षों तक संयम पाले और फिर कर्मवश संयम से गिर जाय तो जैन समाज उसे तब तक ही पूजनीय मानेगा जब तक कि उसमें संयम के गुण हैं और जब उसे यह मालूम हुआ कि वह तो केवल वेशधारी ही है तो शीघ्र ही उसका बहिष्कार कर देगा। बस इसीसे सिद्ध हो जाता है कि - जैन समाज गुण पूजक है, आकृति या शरीर का पूजक नहीं। जब साक्षात् शरीर को भी पूजनीय नहीं माना जाता तब उसको मूर्ति या चित्र को तो आदर दिया ही कैसे जा
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