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पृयणवत्तियं *******************************************
और वैक्रिय के पुद्गल अचित्त होने से हिंसा होती नहीं तथा ये पुष्प वर्षा भी किसी विशेष प्रसंग पर ही होती है, सदैव नहीं। इसके सिवाय ये बरसाये हुए पुष्प प्रभु पर गिरते हों यह भी प्रमाणित नहीं होता। प्रभु पर तो अशोक वृक्ष की गहरी छाया रहती थी, जिससे ऊपर से गिरने वाले पुष्प नीचे बैठे हुए प्रभु पर नहीं आ सकते थे।
आश्चर्य तो इस बात का होता है कि जो जैन श्रमण किसी भी प्राणी का किसी भी करण योग से अहित नहीं चाहते और अपने को हिंसा के सर्वथा-नौकोटि से त्यागी होना बतलाते हैं वे ही यदि इन मूक जीवों के जानी दुश्मन बन हत्या करने का गला फाड़कर उपदेश दें और उसमें धर्म बतावें तो पानी को आग और अमृत को विष कहने में अतिशयोक्ति ही क्या है?
अपने मनः कल्पित पाखण्ड को जनता के गले मढ़ने में ये लोग अकरणीय कृत्य भी कर डालते हैं। पाठकों की विशेष जानकारी के लिए मूर्तिपूजक आचार्य विजयानंद सुरिकृत “सम्यक्त्व शल्योद्धार" का एक अवतरण यहां दे दिया जाता है, आप मूर्तिपूजा में पुष्पों को होती हुई हिंसा को भी दया का जामा पहिनाते हैं, जरा ध्यान पूर्वक पढ़िये - . "पुष्प पूजा से तो उन श्रावकों ने उन पुष्पों की दया पाली है विचारों कि माली फूलों की चंगरे लेकर बेचने को बैठा है। इतने में कोई श्रावक आ निकले और विचारे कि पुष्पों को वेश्या ले जावेगी तो अपनी शय्या में बिछाकर ऊपर शयन करेगी और उसमें कितनीक की कदर्थना भी होगी कोई व्यसनी ले जावेगा तो फूल के गुच्छे गजरे बनाकर सूंघेगा, हार बनाकर गले में डालेगा या मर्दन करेगा कोई धनी गृहस्थी ले जावे तो वो भी उनका यथेच्छ भोग करेगा और स्त्रियों के शिर में गूंथे जावेंगे तो इत्र के व्यापारी ले जावेंगे तो फुलेल वगैरह
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