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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा २५६ ********************* ************** यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि कैसे साधु इस व्रत को आराधन कर सकते हैं? इसके उत्तर में यह बताया गया है कि जो वस्त्रादि और भोजन पानी लेने देने में कुशल हो वे अत्यन्त बाल, दुर्बल, रोगी, वृद्ध ऐसे मासखमण करने वाले आचार्य, उपाध्याय, नवदीक्षित, साधर्मिक, तपस्वी, कुलगण, संघ, इन दश प्रकार या बहु प्रकार के व्यक्तियों की वैयावच्च अर्थात् सेवा (सहायता) ज्ञान के लिए निर्जरा का अर्थी साधु करता है। इसमें स्पष्ट बताया गया है कि बाल यावत् संघ की वैयावृत्य (सेवा) उपधि ( वस्त्र पात्रादि) और आहारादि द्वारा करे, अब यदि सुन्दर मित्र "चेइयट्ठे " का अर्थ मन्दिर मूर्ति करें तो यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि - क्या मूर्ति मन्दिर की सेवा आहार, पानी, औषधि आदि से करे ? क्योंकि सूत्र में तो सभी की सेवा आहारादि से करने का बताया है और मूर्ति को तो आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि की आवश्यकता नहीं होती, वह तो जड़ है, फिर उसका यहाँ किस प्रकार ग्रहण हो सकता है ? वास्तव में इस सूत्र का उद्देश्य व्रतधारी मनुष्य समाज साधुविशेष की सेवा से ही है और इसी से इसमें योग्यतानुसार पृथक-पृथक नाम गिनाये हैं तथा आहार, पानी, वस्त्र, पात्रादि की आवश्यकता भी श्रमणवर्यों को ही होती है अतएव स्पष्ट हो गया कि यह सूत्र किसी भी हालत में मूर्ति या मन्दिर की आशातना को दूर करवाने की हास्यास्पद बात को नहीं बताता । जबकि वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि वैयावच्च का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि - " अन्नादिकानां विधिना सम्पादनम् अर्थात् विधि पूर्वक आहार पानी पहुँचाना, फिर यह आहार पानी मन्दिर मूर्ति को किस तरह पहुँचाना या आहार पानी से किस प्रकार आशातना मिटाना ? अतएव सुन्दर अर्थ असंगत तथा मतमोह युक्त होने से उपेक्षणीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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