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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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"जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा को “चैत्य' कहा है और चोतरे बन्ध वृक्ष का नाम चैत्य कहा है इनके उपरांत और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है।" (सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० १७५)
इस प्रकार श्री विजयानंद सूरिजी चैत्य शब्द के आचार्य हेमचन्द्रजी के कोष के आधार से तीन ही अर्थ कर आगे के लिए बिलकुल इन्कार करते हैं कि “इनके उपरांत और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है'' किन्तु पाठक, जरा एक पन्ना और पलटकर पृ० १७७ को देखें, वहाँ ये युगावतार महापुरुष एक अर्थ और स्वीकार करते हैं।
“जिस वन में यक्षादिक का मन्दिर होताहै, उसी बन को सूत्रों में चैत्य कहा है।"
पाठक वृन्द! देख लिया? जहाँ इन्कार और स्वीकार साथ ही साथ चलते हैं वहाँ और क्या चाहिए?
___ इस प्रकार चैत्य शब्द पर मूर्ति पूजक महाशयों की पूरी कृपा दृष्टि रही है, यहाँ हम एक अवतरण और उक्त विजयानंद सूरिजी के शिष्य रत्न "जनाब फैजमान, मग्जनेइल्म, जैन श्वेताम्बर, धर्मोपदेष्टा, विद्यासागर, न्यायरत्न, (इतनी लम्बी पूंछ वाले) श्री शांतिविजयजी की पुस्तक "जैन मत पताका" पृ० ७४ पं० ८ से देते हैं, पाठक ध्यान से पढ़ें।
___ "चैत्य शब्द के माइने-जिन मन्दिर और जिन मूर्ति ये दो होते हैं, इससे ज्यादा नहीं।"
देखलिये हथकंडे! क्यों न हो, जबकि गुरु “कलिकाल * सर्वज्ञ समान" है, तब चले कम क्यों हों? वे भी विद्या के सागर ठहरे, फिर हथकंडेबाजी में न्यूनता ही क्यों रखें?
* हिन्दी सम्यक्त्व शल्योद्वार चतुर्थावृत्ति के मुख पृष्ठ पर श्री विजयानंद सूरिजी को "कलिकाल सर्वज्ञ समान लिखा है" इस वर्तमान समय में क. स. कौन है? मालूम नहीं हो सका। शायद निर्वाणबाद बनते होंगे। ले०....
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