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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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कर रहा हूँ तो ऐसा कहने वाला भ्रष्ट श्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह अनन्त काल तक चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करेगा । " इसके बाद पांचवें अध्ययन में लिखा है कि
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"जिन पूजा में लाभ है, ऐसी प्ररूपणा जो कोई अधिकता से करे तथा इस प्रकार स्वयं या दूसरे भद्र लोकों से फल, फूलों का आरम्भ करें और करावें, तो इन सबको सम्यक्त्व बोध दुर्लभ हो जाता है ।
(२) विवाह चूलिया सूत्र के पाहुड़े ६ उद्देशे ८ में निम्न पाठ
"जइ णं भंते जिण पडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे, सूयधम्मं चरित्त धम्मं लभेज्जा ? गोयमा ! णो अणट्टे सट्टे से केणणं भंते एवं वुच्चई ? गोयमा ! पुढवीकायं हिंसइ जाव तसकायं हिंसइ । "
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अर्थात् - श्री गौतमस्वामीजी प्रश्न करते हैं कि - जिन प्रतिमा की वन्दना, अर्चना करने से क्या श्रुत चारित्र धर्म की प्राप्ति होती है? भगवान् उत्तर देते हैं, नहीं । पुनः प्रश्न होता है, क्यों नहीं ? प्रभु फरमाते हैं कि - पृथिवी काया से लेकर त्रस काया तक की इसमें हिंसा होती है इसलिये ।
यद्यपि उक्त मूल पाठ से प्रश्नोत्तर महावीर प्रभु और गौतम गणधर के बीच होना पाया जाता है। और यह सूत्र है आचार्य प्रणीत, फिर इसमें ऐसा सम्बन्ध क्यों रक्खा गया ? इस विषय में यही समाधान है कि - जिस समय जनता मूर्ति पूजा में ही अपना कल्याण मानकर सीमातीत अज्ञान दशा में पहुँच चुकी थी उस समय किसी
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