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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५१ ****************************学学************ जाती है। व्यापारी व्यापार प्रारंभ करते समय शुभ मुहूर्त देखकर भावि लाभ की आशा से सांसारिक देवों को मनाते हैं। उसी प्रकार सूर्याभ ने भी अपनी उत्पत्ति के बाद अपनी आधीनता में रहे हुए देव, देवी, विमान आदि पर निष्कण्टक अधिकार बनाये रखने व जीवन लीला को सुखपूर्वक चलाने आदि की भावना से पूर्व परम्परागत आचार के अनुसार क्रिया की, उसी के लिए प्रश्न किये और उसी के उसे हित-सुख आदि शब्दों में उत्तर मिले यह बिलकुल सहज है। देवों ने जो भी हित सुखादि फल बताये हैं वे केवल सांसारिक दृष्टि से ही हैं, न कि धार्मिक विचार से। ऐसे सीधे व सरल प्रकरण को जबरदस्ती अपनी मान्यता की युक्ति में घसीटना केवल पक्षपात पूर्ण हृदय का काम है। यदि सुज्ञ पाठक ध्यान पूर्वक इस विषय के मूल पाठ को देखेंगे तो उन्हें मालूम होगा कि मूल पाठ से ही इसका समाधान हो सकता है। धन रक्षा और मूर्ति-पूजा के फल में पहले व पीछे हित-सुखकर आदि जितने कल्याणकर शब्द आये हैं और प्रभु वंदन विषय में पेच्चपरभव-भावी जन्म-में सुखकर हितकर शब्द आये हैं, इसी (पच्छा और पेच्चा) अर्थात् “पीछे और परभव' शब्द से ही यह विषय स्पष्ट हो जाता है। धन रक्षा और मूर्ति पूजा फल के लिए “पच्छा" शब्द है, इससे मतलब आज से पीछे इसी जन्म तक से है, अर्थात् धनरक्षा से आज से जन्म पर्यन्त हित सुख अर्थात् आनन्द मिलता है, उसी प्रकार मूर्ति पूजा से भी आज से पीछे इह जन्म पर्यंत हित सुख अर्थात् निर्विघ्न रूप आनन्द मिल सकता है। और तीर्थंकर वंदन से तो “पेच्चा" अर्थात् परभव में भी आनन्द मिलता है। परभव में आनन्द तभी मिलेगा जब आत्मा ने कल्याणकारी कृत्य किये हों। बस Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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