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अर्थात् - जिनघर-मन्दिर-करवाना यह धर्म सूत्र विरुद्ध अधर्म होते हुए भी बहुत लोक करते हैं। वास्तव में लोक समूह भेड़िया प्रवाह की तरह अन्धानुकरण करने वाला ही अधिक होता है।
(६) संघपट्टक में श्री जिनवल्लभ सूरि लिखते हैं कि - "आकृष्टुं मुग्धमीनान् बडिशपिशितवब्दिंबमादी जैनं।
तन्नाम्ना रम्यरूपानपवरकमठान् स्वेष्टसिद्धयै विधाप्य॥ यात्रा स्नात्राद्युपायैर्नमसितक निशाजागराद्यै च्छलैश्च । श्रद्धालु मजैनेच्छलित इव शर्वच्यतेहाजनोऽयम्॥ २१॥"
अर्थात् - जिस प्रकार रसेन्द्रिय मुग्ध मछलियों को फँसाने के लिए बधिक लोग मांस को कांटे में लगाते हैं, उसी प्रकार द्रव्य लिंगी लोग नामधारी श्रद्धालु जैनों को मांसवत् जिनबिंब दिखाकर और स्वर्गादि फल सिद्धि कहकर यात्रा स्नान आदि उपायों से तथा निशाजागरणादि छल से ठगते हैं। यह महदाश्चर्य है।
(७) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति में उल्लेख है कि - दव्वथओ भावथओ, दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि मिआ। अनिउणमइवयणमिणं, छज्जीवहिअंजिणाबिंति।। १६२|| छज्जीवकाय संजमु, दव्वथएसो विरुज्झई कसिणो। तो कसिण संजम विउ, पुप्फाईअं न इच्छंति॥ १६३॥
अर्थ - द्रव्यस्तव और भावस्तव, यदि यह कहा जाय कि द्रव्यस्तव बहुत गुण वाला है तो यह बुद्धि की अनिपुणता है क्योंकि श्री तीर्थंकर महाराज छह काय जीवों के हित को कहते हैं, और छह काय जीवों की रक्षा रूप संयम में द्रव्यस्तव सम्पूर्ण विरोधी है इसलिये संयम को जानकर मुनि पुष्पादि को नहीं चाहते हैं।
(८) इसी आवश्यक की ११०६ वीं गाथा में नाम, स्थापना
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