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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२६३ ********************************************* और द्रव्य ऐसे तीन भेद के साधु को अवंदनीय बताकर समिति, गुप्ति आदि भावगुण युक्त साधु को ही वंदनीय स्वीकार किया है, इससे भी नाम, स्थापना और द्रव्य अरिहंत अवंदनीय ठहर कर केवल ज्ञानादि भावगुण युक्त अरिहंत ही वंदनीय सिद्ध होते हैं।
(8) श्राद्धविधि नामक ग्रन्थ में श्रावक का स्वरूप बताते हुए लिखा है कि -
"नामाई चउभेओ सड्डो, भावेणइ इच्छ अहिगारो। तिविहो अभाव सडो, सण-वय-उत्तर गुणेहिं॥ ४॥" __अर्थात् - श्रावक के १ नाम २ स्थापना ३ द्रव्य और ४ भाव यह चार भेद हैं, इनमें से तीन भेद को छोड़कर भाव श्रावक ही इच्छनीय है भाव श्रावक तीन तरह के होते हैं, जैसे - १ दर्शन श्रावक २ व्रतधारी श्रावक और ३ उत्तर गुण वाला श्रावक।
इस पर व्याख्या करते हुए “श्राद्धविधि" पृ० ८१ में लिखा है कि
"केवल नामधारी, चित्रामणनी अथवा जेमां गायोनां लक्षण नथी, ते गाय जेम पोतानुं काम करी शकती नथी, तेम १ नाम २ स्थापना अने ३ द्रव्य श्रावक पण पोतानुं इष्ट धर्मकार्य करी शकतो नथी, माटे अहि भाव श्रावक नोज अधिकार जाणवो।"
कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी तरह स्थापना-मूर्तिजिन भी निरर्थक है।
(१०) हारिभद्रीय आवश्यक गाथा ११३८ में रूपक मुद्रा से एक चौभंगी वंदनीय अवंदनीय पर घटाई है, उसका भाव श्री सागरानन्द सूरिजी के शब्दों में निम्न प्रकार से है -
“एक तो चांदीनो कटको, जो के चोक्खी चांदी नो छे, छता तेनी ऊपर रुपीआनी महोर छाप न होय तेने रुपीयो कहेवाय नहीं,
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