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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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गमन के थोड़े वर्षों बाद फिर से शिथिलाचार ने जोर पकड़ा और इसी पुण्य पवित्र आत्मा के वंशजों में से कुछ लोग अलग निकलकर उसी ढर्रे में फिर से फंस गये। जिन मन्दिर मूर्तियों का श्रीमान् लोकाशाह ने आगमाधार से बहिष्कार किया था, उन्हीं मन्दिर मूर्तियों का उसी युग प्रधान के वंशज अपनी शिथिलता और स्वार्थ पोषण के लिए आदर करने लगे। उस समय श्रीमान् लोकाशाह का जो भी कुछ आगम साहित्य होगा वो भी उन्हीं के हाथ में चला जाना स्वाभाविक है । इस प्रकार बहुत बड़े लम्बे समय से साहित्य सामग्री मूर्ति पूजक और शिथिलाचार वालों के हाथ में रही। क्रियोद्धार के बाद हमारे साधुमार्गी जैन समाज के पास जो भी साहित्य सामग्री आने लगी वो उन्हीं लोगों के पास से । अतएव ऐसी सामग्री से ही काम चलाना पड़ा।
कुछ वर्षों से साहित्य क्षेत्र में भी जनता की रुचि बढ़ी, कई अन्वेषकों ने प्राचीन प्रतियों की शोध कर शुद्ध संस्करण प्रकाशित किये जिससे बहुत समय से घुसी हुई कई भ्रान्तियां दूर हुई।
जिस प्रकार आनन्द श्रमणोपासक के अधिकार में " अरिहंत " शब्द का अधिक बढ़ाया जानां सिद्ध हो गया, और उस विषयक भ्रान्ति दूर हो गई, इसी तरह इस अंबड अधिकार में भी कुछ गोलमाल हुआ हो तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि दोनों का यह प्रकरण इस विषय में मिलता जुलता है, औपपातिक सूत्र का अम्बड़ विषयक पाठ सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० ८५ में श्री विजयानन्द सूरि ने निम्न प्रकार से दिया है - "अंबडस्स परिवायगस्स नोकप्पर अण्णउत्थिए वा, अण्णउत्थिय देवयाणि वा अण्णउत्थिय परिग्गहियाइं अरिहंत चेइयाई वंदित्तए वा नमसित्तए वा णणणत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइआणि वा । "
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